महाभारत वन पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-20
विंश अध्याय: वनपर्व (अरण्यपर्व)
प्रद्युम्न द्वारा शाल्व की पराजय
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं --राजन ! आपका राजसूय महायज्ञ समाप्त हो जाने पर मैं शाल्व से विमुक्त आनर्त नगर ( द्वारका ) में गया। महाराज ! मैंने वहाँ पहुँचकर देखा, द्वारका श्रीहीन हो रही है। वहाँ न तो स्वाध्याय होता है, न वषट्कार। वह पूरी आभूषणों से रहित सुन्दरी नारी की भाँति उदास लग रही थी। द्वारका के वन-उपवन तो ऐसे हो रहे थे, मानो पहचाने ही न जाते हों। यह सब देखकर मेरे मन बड़ी आशंका हुई और मैंने कृतवर्मा से पूछा--। ‘नरश्रेष्ठ ! इस वृष्णिवंश मे प्रायः सभी स्त्री- पुरुष अस्वस्थ दिखायी देते हैं, इसका क्या कारण है? यह मैं ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ। नृपश्रेष्ठ ! मेरे इस प्रकार पूछने पर कृतवर्मा ने शाल्व के द्वारका पुरी पर घेरा डालने और फिर छोड़कर भाग जाने-का सब समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाया। भरतवंशशिरोमणे ! यह सब वृतान्त पूर्णरूप से सुनकर मैंने शाल्वराज के विनाश का पूर्ण निश्चय कर लिया। भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर मैं नगरवासियों को आश्वासन देकर राजा उग्रसेन, पिता वसुदेव तथा सम्पूर्ण वृष्णिवंशियों का हर्ष बढ़ाते हुए बोला-‘यदुकुल के श्रेष्ठ पुरुषों ! आप लोग नगर की रक्षा के लिये सदा सावधान रहें। ‘मैं शाल्वराज का नाश करने के लिये यहाँ से प्रस्थान करता हूँ। आप यह निश्चय जानें; मैं शाल्व का वध किये बिना द्वारकापुरी को नहीं लौटूँगा । ‘शाल्व सहित सौभ नगर का नाश कर लेने पर ही मैं पुनः आप लोगों का दर्शन करूँगा। 'अब शत्रुओं को भयभीत करने वाले इस इस नगाड़े को तीन बार बजाइये।' भरतकुलभूषण ! मेरे इस प्रकार आश्वासन देने पर सभी यदुवंशी वीरों ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा--‘जाइये और शत्रुओं का विनाश कीजिये‘। प्रसन्न चित्त वाले उन वीरों के द्वारा आशीर्वाद से अभिनन्दित होकर मैंने श्रेष्ठ ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन और मस्तक झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया। नरश्रेष्ठ ! तदनन्तर शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़ो से जुते हुए अपने रथ के द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनि करते हुए श्रेष्ठ शंख पांचजन्य को बजाकर मैंने विशाल सेना के साथ रण के लिये प्रस्थान किया। मेरी उस व्यूहरचना से युक्त और नियन्त्रित सेना में हाथी, घोडे़, रथी और पैदल--चारों ही अंग मौजूद थे। उस समय वह सेना विजय से सुशोभित हो रही थी। तब मैं बहुत से देशों और वृक्षों से हरे-भरे पर्वतों, सरोवरों और सरिताओं को लाँघता हुआ मार्तिका वन में जा पहुँचा। नरव्याघ्र ! वहाँ मैंने सुना कि शाल्व सौभ विमान पर बैठकर समुद्र के निकट जा रहा था। तब मैं उसी के पीछे लग गया। शत्रुनाशक ! फिर समुद्र के निकट पहुँचकर उत्ताल तरंगो वाले महासागर की कुक्षि के अन्तर्गत उसके नाभिदेक्ष ( एक द्वीप ) में जाकर राजा शाल्व सौभ विमान पर ठहरा हुआ था।। 17 ।। युधिष्ठिर ! वह दुष्टात्मा दूर से ही मुझे देखकर मुस्कुराता हुआ-सा देखकर बारंबार युद्ध के लिये ललकारने लगा। मेरे शांग धनुष से छूटे हुए बहुत से मर्म भेदी बाण शाल्व के विमान तक नहीं पहुँच सके। इससे मैं रोष में भर गया। राजन् ! नीच दैत्य दुर्द्धर्ष राजा शाल्व के स्वभाव से ही पापाचारी था। उसने मेरे ऊपर सहस्त्रों बाणधाराएँ बरसायीं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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