महाभारत वन पर्व अध्याय 20 श्लोक 21-41

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विंश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व विंश अध्याय श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

मेरे सारथि, घोड़ों तथा सैनिकों पर उसने भी बाणों की झड़ी लगा दी। भारत ! उसके बाणों की बौछार को कुछ न समझकर मैं युद्ध में ही लगा रहा। तदनन्तर शाल्व के अनुगामी वीरों ने युद्ध मेरे ऊपर झुकी हुई गाँठ वालें लाखों बाण बरसाये। उस समय उन असुरों ने मर्म वेधी बाणों द्वारा मेरे घोड़ों को, रथ को और दारुक को भी ढक दिया। वीरवर ! उस समय मेरे घोड़े, रथ, मेरा सारथि दारुक, मैं तथा मेरे सारे सैनिक--सभी बाणों से आच्छादित होकर अदृश्य हो गये। कुन्तीनन्दन ! तब मैंने भी अपने धनुष द्वारा दिव्य विधि से अभिमन्त्रित किये हुए कई हजार बाण बरसाये। भारत ! शाल्व का सौभ विमान आकाश में इस प्रकार प्रवेश कर गया था कि मेरे सैनिकों की दृष्टि में आता ही नहीं था, मानो एक कोस दूर चला गया हो। तब वे सैनिक रंगशाला में बैठे हुए दर्शकों की भाँति केवल मेरे युद्ध का दृश्य देखते हुए जोर-जोर से सिंहनाद और करतलध्वनि करके मेरा हर्ष बढ़ाने लगे। तब मेरे हाथों से छूटे हुए मनोहर पंखवाले बाण दानवों के अंगों में शलभों की भाँति घुसने लगे। इससे सौभ विमान में मेरे तीखे बाणों से मरकर महासागर में गिरने वाले दानवों का कोलाहल बढ़ने लगा। कंधे और भुजाओं के कट जाने से कबन्ध की आकृति में दिखायी देने वाले वे दानव भयंकर नाद करने हुए समुद्र में गिरने लगे। जो गिरते थे, उन्हें समुद्र में रहने वाले जीव-जन्तु निगल जाते थे। तत्पश्चात् मैंने गोदुग्ध, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, मृणाल तथा तथा चाँदी की-सी कान्तिवाले पांचजन्य नामक शंख को बड़े जोर से फूँका। उन दानवों को समुद्र मे गिरते देख सौभराज शाल्व महान माया युद्ध के द्वारा मेरा सामना करने लगा। फिर तो मेरे ऊपर गदा, हल, प्राप्त, शूल, शक्ति, फरसे, खड्ग, शक्ति, वज्र, पाश, ऋषि, कनप, बाण, पट्टिश और भुशुण्डी आदि शस्त्रों की निरन्तर वर्षा होने लगी। मैंने शस्त्रों को उसकी माया द्वारा ही नियन्त्रित करके नष्ट कर दिया। उस माया का नाश होने पर वह पर्वत के शिखरों द्वारा युद्ध करने लगा। तदनन्तर कभी अन्धकार-सा हो जाता, कभी प्रकाश-सा हो जाता, कभी मेघों से आकाश घिर जाता और कभी बादलों के छिन्न-भिन्न होने से सुन्दर दिन प्रकट हो जाता था। कभी सर्दी और कभी गर्मी पड़ने लगती थी। अंगार और धूल की वर्षा के साथ-साथ शस्त्रो की भी वृष्टि होने लगती। इस प्रकार शत्रु ने मेरे साथ माया का प्रयोग करते हुए युद्ध आरम्भ किया। वह सब प्रकार जान मैंने माया द्वारा ही उसकी माया का नाश कर दिया। यथासमय युद्ध करते हुए मैंने बाणों द्वारा शाल्व की सेना को सब ओर से संतप्त कर दिया। कुन्ती पत्रु महाराज युधिष्ठिर ! इसके बाद आकाश सौ सूर्यों से उद्भासित-सा दिखायी देने लगा। उसमें सैकड़ों चन्द्रमा और करोड़ों तारे दिखायी देने लगे। उस समय यह जान नहीं पड़ता था कि यह दिन है या रात्रि ! दिशाओें का भी ज्ञान नहीं होता था; इससे मोहित होकर मैंने प्रज्ञास्त्र का संघान किया। कुन्तीकुमार ! तब उस अस्त्र ने उस सारी माया को उसी प्रकार उड़ा दिया, जैसे हवा रूई को उड़ा देती है। इसके बाद शाल्व के साथ हम लोगों का अत्यन्त भयंकर तथा रोमांचकारी युद्ध होने लगा। राजेन्द्र ! सब ओर प्रकाश हो जाने पर मैंने पुनः शत्रु से युद्ध आरम्भ कर दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौमवधोपाख्यानविषयक बीसवाँ अध्याय।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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