महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 77-91

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तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: श्लोक 89-114 का हिन्दी अनुवाद


कपि शब्द का अर्थ वराह एवं श्रेष्ठ है और वृष कहते हैं धर्म को। मैं धर्म और श्रेष्ठ वराहरूपधारी हूँ; इसलिये प्रजापति कश्यप मझे ‘वृषाकपि’ कहते हैं।। मैं जगत् का साक्षी और सर्वव्यापी ईश्वर हूँ। देवता तथा असुर भी मेरे आदि, मध्य और अन्त का कभी पता नहीं पाते हैं; इसलिये मैं ‘अनादि’, ‘अमध्य’ और ‘अनन्त’ कहलाता हूँ। धनंजय ! मैं यहाँ पवित्र एवं श्रवण करने योग्य वचनों को ही सुनाता हूँ और पापपूर्ण बातों को कभी ग्रहण नहीं करता हूँ, इसलिये मेरा नाम ‘शुचिश्रवा’ है। पूर्वकाल में मैंने एक सींगवाले वराह का रूप धारण करके इस पृथ्वी को पानी से बाहर निकाला और सारे जगत् का आनन्द बढ़ाया; इसलिये मैं ‘एकश्रंृग कहलाता हूँ। इसी प्रकार वराहरूप धारण करने पर गौर शरीर में तीन ककुद् (ऊँचे स्थान) थे; इसलिये शरीर के माप से मैं ‘त्रिककुद्’ नाम से विख्यात हुआ।। कपिल मुनि के द्वारा प्रतिपादित सांख्यशास्त्र का विचार करने वाले विद्वानों ने जिसे विरिंच कहा है, यह सर्वलोकस्रष्टा प्रजापति ‘विरिंच’ मैं ही हूँ, क्योंकि मैं ही सबको चेना प्रदान करता हूँ। तत्त्व का निश्चय करने वाले सांख्यशास्त्र के आचार्यों ने मुझे आदित्य मण्डल में स्थित, विद्याशक्ति के साहचर्य से सम्पन्न सनातन देवता ‘कपिल’ कहा है। वेदों में जिनकी स्तुति की गयी है तथा इस जगत् में योगीजन सदा जिनकी पूजा और स्तरण करते हैं, वह तेजस्वी ‘हिरण्यगर्भ’ मैं ही हूँ। वेद के विद्वान् मुझे ही इक्कीस हजार ऋचाओं से युक्त ‘ऋग्वेद’ और एक हजार शाखाओं वाला ‘सामवेद’ कहते हैं। आरण्यकों में ब्राह्मण लोग मेरा ही गान करते हैं। वे मेरे परम भक्त दुर्लभ हैं। जियस यजुर्वेद की छप्पन$आठ$सैंतीस=एक सौ एक शाखाएँ मौजूद हैं, उस यजुर्वेद में भी मेरा ही गान किया गया है।अथर्ववेदी ब्राह्मण मुझे ही कृत्याओं आभिचारिक प्रयोगों से सम्पन्न पंचकल्पात्मक ‘अथर्ववेद’ मानते हैं।। वेदों में जो भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं, उन शाखाओं में जितने गीत हैं तथा उन गीतों में स्वर और वर्ण के उच्चारण करने की तिजनी रीतियाँ हें, उन सबको मेरी बनायी हुई ही समझो। मुन्तीनन्दन ! सबको वर देने वाले जो हयग्रीव प्रकट होते हैं, उनके रूप में मैं ही अवतीर्ध होता हूँ। मैं ही उत्तभाग में वेद-मन्त्रों के क्रम-विभाग और अक्षर-विभाग का ज्ञाता हूँ [१]।महात्मा पांचाल ने वामदेव के बताये हुए ध्यानमार्ग से मेरी आराधना करके मुझ सनातन पुरुष के ही कृपाप्रसाद से वेद का क्रमविभाग प्राप्त किया था।। बाभ्रव्य-गोत्र में उत्पन्न हुए वे महर्षि गालव भगवान् नारायण से वर एवं परम उत्तम योग पाकर वेद के क्रमविभाग के पारंगत विद्वान हुए थे। कण्डरीक-कुल में उत्पन्न हुए प्रतापी राजा ब्रह्मदत्त ने सात जन्मों के जन्म-मृत्यु सम्बन्धी दुःखों का बार-बार स्मरण करके तीव्रतम वैराग्य के कारण शीघ्र ही योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया था। कुरूश्रेष्ठ ! कुन्तीकुमार ! पूर्वकाल में किसी कारणवश मैं धर्म के पुत्ररूप से प्रसिद्ध हुआ था। इसीलिये मुण्े ‘धर्मज’ कहा गया है। पहले नर और नारायण ने जब धर्ममय रथ पर आरूढ़ हो गन्धमादन पर्वत पर अक्षय तप किया था, उसी समय प्रजापति दक्ष का यज्ञ आरम्भ हुआ। भारत ! उस यज्ञ में दक्ष ने रुद्र के लिये भाग नहीं दिया था; इसीलिये दधीचि के कहने से रुद्रदेव ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर डाला। रुद्र ने क्रोध पूर्वक अपने प्रज्वलित त्रिशूल कर बारंबार प्रयोग किया। वह त्रिशूल दक्ष के विस्तृत यज्ञ को भस्म करके सहसा बदरिकाश्रम में हम दोनों (नर और नारायण) के निकट आ पहुँचा। पार्थ ! उस समय नारायण की छाती में वह त्रिशूल बड़े वेग से जा लगा। उससे निकलते हुए तेज की लपेट में आकर नाराया के केश मूँज के समान रंगवाले हो गये। इससे मेरा नाम ‘मुन्जकेश’ हो गया। तब महात्मा नारायण ने हुंकार ध्वनि के द्वारा उस त्रियाूल को पीछे हटा दिया। नारायण के हुकार से प्रतिहत होकर वह शंकरजी के हाथ में चला गया।।113।। यह देख रुद्र तपस्या में लगे हुए उन ऋषियों पर टूट पड़े। तब विश्वात्मा नारायण ने अपने हाथ से उन आक्रमणकारी रुद्रदेव का गला पकड़ लिया। इसी से उनका कण्ठ नीला हो जाने के कारण वे ‘नीलकण्ठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदमन्त्र के दा-दो पद का उच्चारण करके पहल-पहले को छोड़ते जाना और उत्तरोत्तर वद को मिलाकर दो-दो पदों का एक साथ पाठ करते रहना क्रमविभाग कहलाता है। जैसे- अग्निमीले पुराहितम्’ इस मन्त्र का क्रमपाठ इस प्रकार है- ‘अग्नि मीले ईले पुरोहितं पुरोहितं यज्ञस्य’ इत्यादि। अक्षरविभाग का अर्थ है पदविभाग- एक-एक पद को अलग-अलग करके पढ़ना। यथा ‘अग्निम् ईले पुरोहितम्’ इत्यादि।

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