महाभारत वन पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-21
सत्तईसवाँ अध्याय: वनपर्व (अरण्यपर्व)
द्रौपदी का युधिष्टिठर से उनके शत्रुविषयक क्रोध को उभारने के लिये संतापूर्ण वचन
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर वन में गये हुए पाण्डव एक दिन सांयकाल में द्रौपदी के साथ बैठकर दुःख और शोक में मग्न हो कुछ बातचीत करने लगे। पतिव्रता द्रौपदी पाण्डवों की प्रिया, दर्शनीया और विदुषी थी। उसने धर्मराज से इस प्रकार कहा।
द्रौपदी बोली-राजन ! मैं समझती हूँ, उस क्रूर स्वभाव वाले दुरात्मा धृष्टराष्ट्र पुत्र पापी दुर्योधन के मन में हम लोगों के लिये तनिक भी दुःख नहीं हुआ होगा। महाराज ! उस नीच बुद्धि वाले दुष्टात्मा ने आपको भी मृगछाला पहनाकर मेरे साथ वन में भेज दिया; किंतु इसके लिये उसे थोड़ा भी पश्चाताप नहीं हुआ। अवश्य ही उस कुकर्मी का हृदय लोहे का बना है,क्योंकि उसने आप-जैसे धर्मपरायण श्रेष्ठ पुरुष को भी उस समय कटु वचन सुनाये थे। आप सुख भोगने योग्य हैं। दुःख के योग्य कदापि नहीं है, तो भी आपको ऐसे दुःख में डालकर वह पापाचारी दुरात्मा अपने मित्रों के साथ आनन्दित हो रहा है। भारत ! जब आप वल्कल वस्त्र धारण करके वन में जाने के लिये निकले, उस समय केवल चार पापात्माओं के नेत्रों से आँसू नहीं गिरा था। दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि तथा उग्र स्वभाव वाले दुष्ट भ्राता दुःशासन। इन्हीं की आँखों में आँसू नहीं थे। कुरुश्रेष्ठ अन्य सभी कुरुवंशी दुःख में डूबे हुए थे और उनके नेत्रों से अश्रुवर्षा हो रही थी। महराज ! आप की शय्या देखकर मुझे पहले की राजोचित शय्या का स्मरण हो जाता है और मैं आपके लिये शोक में मग्न हो जाती हूँ; क्योंकि आप दुःख के अयोग्य और सुख के ही योग्य हैं। सभा भवन में जो रत्न जड़ित हाथी का दाँत सिंहासन है, उसका स्मरण करके जब मैं इस कुश की चटाई को देखती हूँ, तब शोक मुझे दग्ध किये देता है। राजन् ! मैं इन्द्रप्रस्थ की सभा में आपको राजाओं से घिरा हुआ देख चुकी हूँ, अतः आज मैं वैसी अवस्था में आपको न देखकर मेरे हृदय को क्या शान्ति मिल सकती है? भारत ! मैं जो आपको चन्दनचर्चित एवं सूर्य के समान तेजस्वी देखती रही हूँ, वही मैं आपको कीचड़ एवं मैल जैसे मलिन देखकर मोह के कारण दुःखित हो रही हूँ। राजेन्द्र । जो मैं आपको उज्ज्वल रेशमी वस्त्रों से आच्छादित दुख चुकी हूँ वही वरुकल-वस्त्र पहिने देखती हूँ। एक दिन वह था कि आपके घर से सहस्त्रों ब्राह्मणों के लिये सोने की थालियों में सब प्रकार की रुचि के अनुकूल तैयार किया हुआ सुन्दर भोजन परोसा जाता था। शक्तिशाली महाराज ! उन दिनों प्रतिदिन यतियों, ब्रह्मचारियों और गृहस्थ ब्राह्मणों को भी अत्यन्त गुणकारी भोजन अर्पित किया जाता था। पहले आप के राजभवन में सहस्त्रों ( सुवर्णमय ) पात्र थे, जो सम्पूर्ण इच्छानुकमल भोज्य पदार्थों से भरे-पूरे रहते थे और उनके द्वारा आप समस्त अभीष्ट मनोरथों की पूर्ति करते हुए प्रतिदिन ब्राह्मणों का सत्कार करते थे। राजन ! आज वह सब देखने के कारण मेरे हृदय को क्या शान्ति मिलेगी, महाराज ! आपके जिन भाइयों को कानों में सुन्दर कुण्डल पहने हुए तरुण रसोइये अच्छे प्रकार से बनाए हुए स्वादिष्ट अन्न परोसकर भोजन कराया करते थे, उन सब को आज वन में जंगली फल-फूल से जीवन-निर्वाह करते देख रही हूँ। नरेन्द्र ! आपके भाई दुःख भोगने योग्य नहीं है; आज इन्हें दुःख में देखकर मेरा चित्त किसी प्रकार शान्त नहीं हो पाता है। महाराज ! वन में रहकर दुःख भोगते हुए इन अपने भाई भीमसेन का स्मरण करके समय आने पर क्या शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध नहीं बढ़ेगा? मैं पूछती हूँ,युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले और सुख भोगने के योग्य भीमसेन को स्वयं अपने हाथों से सब काम करते और दुःख उठाते देखकर शत्रुओं पर आपका क्रोध क्यों नहीं भड़क उठता? विविध सवारियों और नाना प्रकार के वस्त्रों से जिनका सत्कार होता था, उन्हीं भीमसेन को वन में कष्ट उठाते देख शत्रुओं के प्रति आपका क्रोध प्रज्वलित क्यों नहीं होता? ये शक्तिशाली भीमसेन युद्ध में समस्त कौरवों को नष्ट का देने का उत्साह रखते हैं, परंतु आपकी प्रतिज्ञा-पूर्ति की प्रतीक्षा करने के कारण अब तक शत्रुओं के अपराध को सहन करते हैं। राजन ! आपको जो भाई अर्जुन दो भुजाओं से युक्त होने पर भी सहस्त्र भुजाओं से विभूषित कार्यवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी हैं, बाण चलाने में अत्यन्त फुर्ती रखने के कारण जो शत्रुओं के लिये काल, अन्तक और यम के समान भयंकर हैं; महाराज ! जिनके शस्त्रों के प्रताप से समस्त भूपाल नतमस्तक हो आपके यज्ञ में ब्राह्मणों की सेवा के लिये उपस्थित हुए थे, उन्हीं देव-दानव पूजित पुरुषसिंह अर्जुन को चिन्तामग्न देखकर आप शत्रुओं पर क्रोध क्यों नहीं करते?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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