महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-16

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एकसठवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: एकसठवाँ अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

राजा के लिये यज्ञ, दान और ब्राह्माण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश युधिष्ठिर ने पूछा- भारत। दान और यज्ञ कर्म- इन दोनों में से कौन मृत्यु के पश्चात महान फल देने वाला होता है? किसका फल श्रेष्ठ बताया गया है? कैसे ब्राह्माणों को कब दान देना चाहिये और किस प्रकार कब यज्ञ करना चाहिये? मैं इस बात को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूं। विद्वन्। आप मुझ जिज्ञासु को दान सम्बन्धी धर्म विस्तार पूर्वक बताइये।तात पितामह। जो दान वेदी के भीतर श्रद्वा पूर्वक दिया जाता है और जो वेदी के बाहर दया भाव से प्रेरित होकर दिया जाता है; इन दोनों में कौन विशेष कल्याणकारी होता है। भीष्मजी ने कहा- बेटा। क्षत्रिय को सदा कठोर कर्म करने पड़ते हैं, अतः यहां यज्ञ और दान ही उसे पवित्र करने वाले कर्म हैं। श्रेष्ठ पुरूष पाप करने वाले राजा का दान नहीं लेते हैं; इसलिये राजा को पर्याप्त दक्षिणा देकर यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिये । श्रेष्ठ पुरूष यदि दान स्वीकर करे तो राजा को उन्हें प्रतिदिन बड़ी श्रद्वा के साथ दान देना चाहिये; क्योंकि श्रद्वापूर्वक दिया हुआ दान आत्म शुद्वि का सर्वोत्तम साधन है । तुम नियम पूर्वक यज्ञ में सुशील, सदाचारी, तपस्वी, वेदवेत्ता, सबसे मैत्री रखने वाले तथा साधु स्वभाव वाले ब्राह्माणों को धन देकर संतुष्‍ट करो। यदि वे तुम्हारा दान स्वीकार नहीं करेंगे तो तुम्हे पुण्य नहीं होगा; अतः श्रेष्ठ पुरूषों के लिये स्वादिष्ट अन्न और दक्षिणा से युक्त यज्ञों का अनुष्ठान करो। याज्ञिक पुरूषों को दान करके ही तुम अपने को यज्ञ और दान के पुण्य का भागी समझ लो। यज्ञ करने वाले ब्राह्माणों का सदा सम्मान करो। इससे तुम्हें भी यज्ञ का आंशिक फल प्राप्त होगा। विद्वानों को दान देने से उनकी पूजा करने से दाता और पूजक को यज्ञ को आंशिक फल प्राप्त होता है। यज्ञ कर्ताओं तथा ज्ञानी पुरूषों को दान देने से वह दान उत्तम लोक का प्राप्ति कराता है। जो दूसरों को ज्ञान दान करते हैं उन्हें भी अन्न और धन का दान करें। इससे दाता उनके ज्ञान दान के आंशिक पुण्य का भागी होता है।।जो बहुतों का उपकार करने वाले बाल-बव्च्चे ब्राह्माणों का पालन-पोषन करता है वह उस शुभ कर्म के प्रभाव से प्रजापति के समान संतानवान होता है। जो संत पुरूष सदा सद्धर्मों का प्रचार और विस्तार करते रहते हैं, अपना सर्वस्व देकर भी उनका भरण-पोषण करना चाहिये; क्योंकि वे राजा के अत्यन्त उपकारी होते हैं । युधिष्ठिर। तुम समृद्विशाली हो, इसलिये ब्राह्माणों को गाय, बैल, अन्न, छाता, जूता और वस्त्र दान करते रहो। भारत। जो ब्राह्माण यज्ञ करते हों उन्हें घी, अन्न, घोड़े, जुते हुए रथ आदि की सवारियां, घर और शैय्या आदि वस्तुऐं देनी चाहिये। भरतनन्दन। राजा के लिये ये दान सरलता से होने वाले और समृद्वि को बढ़ाने वाले हैं । जिन ब्राह्माणों का आचरण निन्दित न हो, वे यदि जीविका के बिना कष्ट पा रहे हों तो उनका पता लगाकर गुप्त या प्रकट रूप में जीविका का प्रबन्ध करके सदा उनका पालन करते रहना चाहिये । क्षत्रियों के लिये वह कार्य राजसूय और अश्‍वमेध यज्ञों से भी अधिक कल्याणकारी है। ऐसा करने से तुम सब पापों से मुक्त एवं पवित्र होकर स्वर्गलोक में जाओगे।। कोष का संग्रह करके यदि तुम उसके द्वारा राष्ट्र की रक्षा करोगे तो तुम्हें दूसरे जन्मों में धन और ब्राह्माणत्व की प्राप्ति होगी। भरतनन्दन। तुम अपनी और दूसरों की भी जीविका की रक्षा करो तथा अपने सेवकों और प्रजाजनों का पुत्र की भांति पालन करो ।भारत।ब्राह्माणों के पास जो वस्तु न हो उसे उनको दान देना और जो हो उसकी रक्षा करना भी तुम्हारा नित्य कर्तव्य है। तुम्हारा जीवन उन्हीं की सेवा में लग जाना चाहिये। उनकी रक्षा से तुम्हें कभी मुंह नहीं मोड़ना चाहिये।ब्राह्माणों के पास यदि बहुत धन इकट्ठा हो जाये तो यह उनके लिये अनर्थ का ही कारण होता है; क्योंकि लक्ष्मी का निरन्तर सहवास उन्हें दर्प और मोह में डाल देता है । ब्राह्माण जब मोह ग्रस्त होते हैं, तब निश्‍चय ही धर्म का नाश हो जाता है और धर्म का नाश होने पर प्राणियों का भी विनाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। जो राजा प्रजा से कर के रूप में प्राप्त हुए धन को कोष की रक्षा करने वाले कोषाध्यक्ष आदि को देकर खजाने में रखवा लेता है और अपने कर्मचारियों को यह आज्ञा देता है कि ‘तुम लोग यज्ञ के लिये राज्य के धन वसूल कर ले आओ’ इस प्रकार यज्ञ के नाम पर जो राज्य की प्रजा को लूटता है तथा उसकी आज्ञा के अनुसार लोगों को डरा-धमका कर निष्ठुरतापूर्वक लाये हुए धन को लेकर जो उसके द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करता है, उस राजा के ऐसे यज्ञ की श्रेष्ठ पुरूष प्रशंसा नहीं करते हैं।इसलिये जो लोग बहुत धनी हों और बिना पीड़ा दिये ही अनुकूलता पूर्वक धन दे सकें उनके दिये हुए अथवा वैसे ही मृदु उपाय से प्राप्त हुए धन के द्वारा यज्ञ करना चाहिये; प्रजा पीड़न रूप कठोर प्रयत्न से लाये हुए धन के द्वारा नहीं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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