महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 343 श्लोक 1-19

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तीन सौ तैंतालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ तैंतालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद


जनमेजय का प्रश्न, देवर्षि नारद का श्वेतद्वीप से लौटकर नर-नारायण के पास जाना और उनके पूछने पर उनसे वहाँ के महत्त्वपूर्ण दृश्य का वर्णन करना

शौनक ने कहा - सूतनन्दन ! आपने यह बहुत बड़ा आख्यान सुनाया है। इसे सुनकर समस्त ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ है। सूतकुमार ! सम्पूर्ण ऋषि-आश्रमों की यात्रा करना और समसत तीर्थों मे स्नान करना भी वैसा फलदायक नहीं है, जैसी कि भगवान् नारायण की कथा है। समस्त पापों से छुड़ाने वाली नारायण सम्बन्धिनी इस पुध्यमयी कथा को आरम्भ से ही सुनकर हमारे तन-मन पवित्र हो गये। सर्वलोकवन्दित भेवान् नारायण देव का दर्शन तो ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओं तथा अन्यान्य महर्षियों के लिये भी दुर्लभ है। सूतनन्दन ! नारदजी ने जो देवदेव नारायण हरि का दर्शन कर लिया, यह निश्चय ही उन भगवान् की अनुमति से ही सम्भव हुआ। नारदजी ने जो अनिरुद्ध-विग्रह में स्थित हुए जगन्नाथ श्रीहरि का दर्शन किया और पुनः जो वे वहाँ से देवश्रेष्ठ नर-नारायण का दर्शन करने के लिये उनके पास दसैड़े गये, इसका क्या कारण है ? यह मुझे बताइये।

सूतपुत्र ने कहा - शौनक ! राजा जनमेजय का वह यज्ञ विधि पूर्वक चल रहा था। उसमें विभिन्न कर्मों के बीच में अवकाश मिलने पर राजेन्द्र जनमेजय ने अपने पितामह के पितामह वेदनिधि भगवान् कृष्णद्वैपायन महर्षि व्यास से इस प्रकार पूछा।

जनमेजय बोले - भगवन् ! भगवान् नारायण के कथन पर विचार करते हुए देवर्षि नारद जब श्वेतद्वीप से लौट आये, तब उसके बाद उन्होंने क्या किया ? बदरिकाश्रम मे आकर उन दोनों ऋषियों से मिलने के पश्चात् नारदजी ने वहाँ कितने समय तक निवास किया और उन दोनों से कौन सी कथा पूछी ? एक लाख श्लोकों से युक्त विस्तृत महाभारत इतिहास से निकालकर जो आपने यह सारभूत कथा सुनायी है, यह बुद्धिरूपी मथानी के द्वारा ज्ञान के उत्तम समुद्र को मथकर निकाले गये अमृत के समान है। रह्मन् ! जैसे दही से मक्खन, मलय पर्वत से चन्दन, वेदों से आरण्यक और औषधियों से अमृत निकाला गया है, उसी प्रकार आपने यह कथा रूपी अमृत निकालकर रखा है। तपोनिधे ! आपने भगवान् नारायण की कथा से सम्बन्ध रखने वाली जो बातें कही हैं, वे सब इस ग्रन्थ की सारभूत हैं। सबके ईश्वर भगवान् नारायणदेव सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न करने वाले हैं। द्विजश्रेष्ठ ! उन भगवान् नारायण का तेज अद्भुत है। मनुष्य के लिये उनकी ओर देखना भी कठिन है। कल्प के अन्त में जिनके भीतर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता, ऋषि, गन्धर्व तथा जो कुछ भी चराचर जगत् है, वह सब विलीन हो जाता है, उनसे बढ़कर परम पावन एवं महान् इस भूतल और स्वर्गलोक में मैं दूसरे किसी को नहीं मानता। सम्पूर्ण ऋषि-आश्रमों की यात्रा करना और समसत तीर्थों में स्नान करना भी वैसा ही फल देने वाला नहीं है, जैसा कि भगवान् नारायण की कथा प्रदान करती है। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्रीहरि की कथा सब पापों का नाश करने वाली है। उसे आरम्भ से ही सुनकर हम सब लोग यहाँ सर्वथा पवित्र हो गये हैं। मेरे पितामह अर्जुन ने जो भगवान् वासुदेव की सहायता पाकर उत्तम विजय प्राप्त कर ली, वह वहाँ उन्होंने कोई अद्भुत कार्य नहीं किया है। त्रिलोकीनाथ भगवान् कृष्ण ही जब उनके सहायक थे, तब उनके लिये तीनों लोकों में किसी वस्तु की प्राप्ति असम्भव रही हो यह मैं नहीं मानता।। ब्रह्मन् ! मेरे सभी पूर्वज धन्य थे, जिनका हित और कल्याण करने के लिये साक्षात् जनार्दन तैयार रहते थे।। लोकपूजित भगवान् नारायण का दर्शन तो तपस्या से ही हो सकता है; किन्तुमेरे पितामहों ने श्रीवत्स के चिन्ह से विभूषित उन भगवान् का साक्षात् दर्शन अनायास ही पा लिया था। उन सबसे भी अधिक धन्यवाद के योग्य ब्रह्मपुत्र नारदजी हैं। मैनें अविनाशी नारदजी को कम तेजस्वी ऋषि नहीं समझता, जिन्होंने श्वेतद्वीप में पहुँचकर साक्षात श्रीहरि का दर्शन प्रापत कर लिया। उनका वह भगवद्-दर्शन स्पष्ट ही उन भगवान् की कृपा का फल है।। मुने ! नारदजी ने उस समय श्वेतद्वीप में जाकर जो अनिरुद्ध-विग्रह में स्थित नारायणदेव का साक्षात्कार किया तथा पुनः नर-नारायण का दर्शन करने के लिये जो बद्रिकाश्रम को प्रस्थान किया, इसका क्या कारण है ? ब्रह्मपुत्र नारदजी श्वेतद्वीप से लौटने पर जब बद्रिकाश्रम में पहुँकर उन दोनों ऋषियों से मिले, तब वहाँ उन्होंने कितने समय तक निवास किया ? और वहाँ उनसे किन-किन प्रश्नों का पूछा ? श्वेतद्वीप लौटे हुए उन नारदजी से महात्मा नर-नारायण ऋषियों ने क्या बात की थी ? ये सब बातें आप यथार्थ रूप से बताने की कृपा करें।

वैशम्पायनजी ने कहा - अमित तेजस्वी भगवान् व्यास को नमस्कार है, जिनके कृपा प्रसाद से मैं भगवान् नारायण की यह कथा कह रहा हूँ। राजन् ! श्वेत नामक महाद्वीप में जाकर वहाँ अविनाशी श्रीहरि का दर्शन करके जब नारदजी लौटे, तब बड़े वेग से मेरु पर्वत पर आ पहुँचे। परमात्मा श्रीहरि ने उनसे जो कुछ कहा था, उस कार्यभार को वे हृदय से ढो रहे थे। नरेश्वर ! तत्पश्चात् उनके मन में यह सोचकर बड़ा भारी विस्मय हुआ कि मैं इतनी दूर का मार्ग तय करके पुनः यहाँ सकुशल कैसे लौट आया ? तदनन्तर वे मेरु से गन्धमादन पर्वत की ओर चले और बद्रीविशाल तीर्थके समीप तुरंत ही आकाश से नीचे उतर पड़े। वहाँ उन्होंने उन दोनों पुरातन देवता ऋषिश्रेष्ठ नर-नारायण का दर्शन किया, जो आत्मनिष्ठ हो महान् व्रत लेकर बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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