महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 62 श्लोक 17-32

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बासठवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: बासठवाँ अध्याय: श्लोक 26-54 का हिन्दी अनुवाद

जैसे माता अपने बच्चे सदा दूध पिलाकर पालती है, उसी प्रकार पृथ्वी सब प्रकार के रस देकर भूमिदाता पर अनुग्रह करती है। काल की भेजी हुई मौत, दण्ड, तमोगण, रारूण अग्नि और अत्यंत भयंकर पाष- ये भूमि दान करने वाले पुरूष का स्पर्स नहीं कर सकते हैं। जो पृथ्वी का दान करता है, वह शांत चित्त पुरूष पितृलोक में रहने वाले पितरों और देवलोक से आये हुए देवताओं को भी तृप्त कर देता है। दुर्बल, जीविका के बिना दुखी और भूख के कष्ट से मरते हुए ब्राह्माण को उपजाऊ भूमि दान करने वाला मनुष्य यज्ञ का फल पाता है । महाभाग। जैसे बछड़े के प्रति वात्सल्य भाव से भरी हुई गौ अपने थनों से दूध बहाती हुई उसे पिलाने के लिये दौड़ती है, उसी प्रकार ये पृथ्वी भूमिदान करने वाले को सुख पहुंचाने के लिये दौड़ती है। जो मनुष्य जोती-बोयी और उपजी हुई खेती से भरी भूमि का दान करता है अथवा विशाल भवन बनवाकर देता है, उसकी समस्त कामनाऐं पूर्ण हो जाती हैं । जो सदाचारी, अग्निहोत्री और उत्तम व्रत में संलग्न ब्राह्माण को पृथ्वी का दान करता है, वह कभी भारी विपत्ती में नहीं पड़ता है। जैसे चन्द्रमा की कला प्रतिदिन वढती है, उसी प्रकार दान की हुई पृथ्वी में जितनी बार फसल पैदा होती है, उतना ही उसके पृथ्वी दान का फल बढता जाता है। प्राचीन बातों को जानने वाले लोग भूमि की गायी हुई गाथाओं का वर्णन किया करते हैं, जिन्हें सुनकर जमदग्निनन्दन परशुराम ने काश्‍यपजी को सारी पृथ्वी दान करदी थी। वह गाथा इस प्रकार है- (पृथ्वी कहती है-) ‘मुझे ही दान में दो, मुझे ही ग्रहण करो। मुझे देकर ही मुझे पाओगे; क्योंकि मनुष्य इस लोक में जो कुछ दान करता है, वही उसे इहलोक और परलोक में भी प्राप्त होता है’। जो ब्राह्माण श्राद्व काल में पृथ्वी की गायी हुई वेद सम्मत इस गाथा का पाठ करता है वह ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। अत्यन्त प्रबल कृत्या (मारणशक्ति) के प्रयोग से जो भय प्राप्त होता है, उसको शांत करने का सबसे महान साधन पृथ्वी का दान ही है। भूमि दान रूप प्रायश्चित करके मनुष्य अपने आगे-पीछे की दस पीढियों को पवित्र कर देता है। जो वेद वाणी रूप इस भूमि गाथा को जानता है, वह भी अपनी दस पीढियों को पवित्र कर देता है। यह पृथ्वी सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति स्थान है और अग्नि इसका इधिष्ठाता देवता है । राजा को राजसिंहासन पर अभिषिक्त करने के बाद उसे तत्काल ही पृथ्वी की गायी हुई गाथा सुना देनी चाहिये; जिससे वह भूमि का दान करे और सत्पुरूषों के हाथ से उन्हें दी हुई भूमि छीन न ले। यह सारी कथा ब्राह्माण और क्षत्रिय के लिये है। इस विषय में कोई संदेह नहीं है; क्योंकि राजा धर्म में कुशल हो, यह प्रजा के एश्‍वर्य (वैभव)- को सूचित करने वाला प्रथम लक्षण है । जिनका राजा धर्म को न जानने वाला और नास्तिक होता है, वे लोग न तो सुख से सोते हैं और न सुख से जागते ही हैं; अपितु उस राजा के दुराचार से सदैव उद्विग्न रहते हैं। ऐसे राजा के राज में बहुदा योगक्षेम नहीं प्राप्त होते।किंतु जिनका राजा बुद्विमान और धार्मिक होता है, वे सुख से सोते और सुख से जागते हैं। उस राजा के शुभ राज्य और शुभ कर्मों से प्रजा वर्ग के लोग संतुष्ट रहते हैं। उस राज्य में सबके योगक्षेम का निर्वाह होता है, समय पर बर्षा होती है और प्रजा अपने शुभ कर्मों से समृद्विशालिनी होती है । जो पृथ्वी का दान करता है, वही कुलीन, वही पुरूष, वही बन्धु, वही पुण्यात्मा, वही दाता और वही पराक्रमी है। जो वेद वेत्ता ब्राह्माण को धन-धान्य से सम्पन्न भूमि दान करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वी पर अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। जैसे भूमि में बोये हुए बीज खेती के रूप अंकुरित होते और अधिक अन्न पैदा करते हैं, उसी प्रकार भूमि दान करने से सम्पूर्ण कामनाऐं सफल होती हैं।सूर्य, वरूण, विष्णु, ब्रम्हा, चन्द्रमा, अग्नि और भगवान शंकर- ये सभी भूमि-दान करने वाले पुरूष का अभिनन्दन करते हैं। सब लोग पृथ्वी पर ही जन्म लेते हैं और पृथ्वी में ही लीन हो जाते हैं। अण्डज, जरायुज, स्वेदज और उद्धिज्ज- इन चारों प्रकार के प्राणियों का शरीर पृथ्वी का ही कार्य है।पृथ्वीनाथ।नरेश्‍वर। यह पृथ्वी ही जगत की माता और पिता है। इसके समान दूसरा कोई भूत नहीं है।युधिष्ठिर। इस विषय में विज्ञ पुरूष इन्द्र और बृहस्पति के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। इन्द्र ने महान दक्षिणाओं से युक्त सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने के पश्चात वाग्वेत्ताओं में श्रेष्ठ बृहस्पति जी से इस प्रकार पूछा। इन्द्र बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवन। किस दान के प्रभाव से दाता को स्वर्ग से भी अधिक सुख की प्राप्ति होती है? जिसका फल अक्षय और अधिक महत्वपूर्ण हो उस दान को ही मुझे बताइये । भीष्मजी कहते हैं- भारत। देवराज इन्द्र के ऐसा कहने पर देवताओं के पुरूहोहित महातेजस्वी बृहस्पति ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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