महाभारत आदि पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-18

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एकोनपंचाशत्तमो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: एकोनपंचाशत्तमो अध्‍याय: श्लोक 1- 31 का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी बोले—सूतनन्दन ! राजा जनमेजय ने (उत्तक की बात सुनकर) अपने पिता परीक्षित के स्वर्गवास के सम्बन्ध में मन्त्रियों से जो पूछताछ की थी, उसका आप विस्तारपूर्वक पुनः वर्णन कीजिये। उग्रश्रवाजी ने कहा—ब्रह्मन ! मुनि ये, उस समय राजा ने मन्त्रियों से जो कुछ पूछा और उन्होंने परीक्षित की मृत्यु के सम्बन्ध में जैसी बातें बतायी, वह सब मैं सुना रहा हूँ। जनमेजय ने पूछा—आप लोग यह जानते होंगे कि मेरे पिता के जीवनकाल में उनका आचार-व्यवहार कैसा था? और अन्तकाल आने पर वे महायशस्वी नरेश किस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए थे? आप लोगों से अपने पिता के सम्बन्ध में सारा वृत्तान्त सुनकर ही मुझे शान्ति प्राप्त होगी; अन्यथा मैं कभी शान्त न रह सकूँगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं—राजा के सब मन्त्री धर्मज्ञ और बुद्धिमान थे। उन महात्मा राजा जनमेजय के इस प्रकार पूछने पर वे सभी उनसे यों बोले। मन्त्रियों ने कहा—भूपाल ! तुम जो कुछ पूछते हो, वह सुनो ! तुम्हारे महात्मा पिता राज- राजेश्वर परीक्षित का चरित्र जैसा था और जिस प्रकार वे मृत्यु को प्राप्त हुए वह सब हम बता रहे हैं। महाराज ! आपके पिता बड़े धर्मात्मा, महात्मा और प्रजापालक थे। वे महामना नरेश इस जगत में जैसे आचार- व्यवहार का पालन करते थे, वह सुनो। वे चारों वर्णों को अपने-अपने धर्म में स्थापित करके उन सबकी धर्मपूर्वक रक्षा करते थे। राजा परीक्षित केवल धर्म के ज्ञाता ही नहीं थे, वे धर्म के साक्षात स्वरूप थे। उनके पराक्रम की कहीं तुलना नहीं थी। वे श्री सम्पन्न होकर इस वसुधादेवी का पालन करते थे। जगत में उनसे द्वेष रखने वाले कोई न थे और वे भी किसी से द्वेष नहीं रखते थे। प्रजापति ब्रह्माजी के समान वे समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखते थे। राजन ! महाराज परीक्षित के शासन में रहकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों में संलग्न और प्रसन्नचित्त रहते थे। वे महाराज विधवाओं, अनाथों, अंगहीनों और दीनों का भी भरण-पोषण करते थे। दूसरे चन्द्रमा की भाँति उनका दर्शन सम्पूर्ण प्राणियों के लिये सुखद एवं सुलभ था। उनके राज्य में सब लोग हृष्ट- पुष्ट थे। वे लक्ष्मीवान, सत्यवादी तथा अटल पराक्रमी थे। राजा परीक्षित धर्नुवेद में कृपाचार्य के शिष्य थे। जनमेजय ! तुम्हारे पिता भगवान श्रीकृष्ण के भी प्रिय थे। वे महायशस्वी महाराज सम्पूर्ण जगत के प्रेमपात्र थे। जब कुरूकुल परिक्षीण (सर्वथा नष्ट) हो चला था, उस समय उत्तरा के गर्भ से उनका जन्म हुआ। इसलिये वे महाबली अभिमन्युकुमार परीक्षित नाम से विख्यात हुए। राजधर्म और अर्थनीति में वे अत्यन्त निपुण थे। समस्त सद्रुणों ने स्वयं उनका वरण किया था। वे सदा उनसे संयुक्त रहते थे। उन्होंने अपनी इन्द्रियों को जीतकर मन को अपने वश में कर रखा था। वे मेधावी तथा धर्म का सेवन करने वाले थे। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मद और मात्सर्य—इन छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनकी बुद्धि विशाल थी। वे नीति के विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ थे। तुम्हारे पिता ने साठ वर्ष की आयु तक इन समस्‍त प्रजाजनों का पालन किया था। तदनन्तर हम सबको दुःख देकर उन्होंने विदेह-कैवल्य प्राप्त किया। पुरुषश्रेष्ठ ! पिता के देहावसान के बाद तुमने धर्मपूर्वक इस राज्य को ग्रहण किया है, बाल्यावस्था में ही तुम्हारा राज्याभिषेक हुआ था। तब से तुम्हीं इस राज्य के समस्त प्राणियों का पालन करते हो। जनमेजय ने पूछा—मन्त्रियों ! हमारे इस कुल में कभी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ, जो प्रजा का प्रिय करने वाला तथा सब लोगों का प्रेमपात्र न रहा हो। विशेषतः महापुरुषों के आचार में प्रवृत्त रहने वाले हमारे प्रपितामह पाण्डवों के सदाचार को देखकर प्रायः सभी धर्म परायण ही होंगे। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे वैसे धर्मात्मा पिता की मृत्यु किस प्रकार हुई? आप लोग मुझसे इसका यथावत वर्णन करें। मैं इस विषय में सब बातें ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! राजा जनमेजय के इस प्रकार पूछने पर उन मन्त्रियों ने महाराज से सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बताया; क्योंकि वे सभी राजा का प्रिय चाहने वाले और हितैषी थे। मन्त्री बोले—राजन ! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तुम्हारे पिता भूपाल परीक्षित का सदा महाबाहु पाण्डु की भाँति हिंसक पशुओं को मारने का स्वभाव था और युद्ध में उन्हीं की भाँति सम्पूर्ण धर्नुधर वीरों में श्रेष्ठ सिद्ध होते थे। एक दिन की बात है, वे सम्पूर्ण राजकार्य का भार हम लोगों पर रखकर वन में शिकार खेलने के लिये गये। वहाँ उन्होंने पंखयुक्त बाण से एक हिंसक पशु को बींध डाला। बींधकर तुरंत ही गहन वन में उसका पीछा किया। वे तलवार बाँधे पैदल ही चल रहे थे। उनके पास बाणों से भरा हुआ विशाल तूणीर था। वह घायल पशु उस घने वन में कहीं छिप गया। तुम्हारे पिता बहुत खोजने पर भी उसे पा न सके। प्रौढ़ अवस्था, साठ वर्ष की आयु और बुढ़ापे का संयोग इन सबके कारण वे बहुत थक गये थे। उस विशाल वन में उन्हें भूख सताने लगी। इसी दशा में महाराज ने वहाँ मुनिश्रेष्ठ शमीक को देखा। राजेन्द्र परीक्षित ने उनसे मृग का पता पूछा; किंतु वे मुनि उस समय मौनव्रत के पालन में संलग्न थे। उनके पूछने पर भी महर्षि शमीक उस समय कुछ न बोले। वे काठ की भाँति चुपचाप, निश्चेष्ट एवं अविचल भाव से स्थित थे। यह देख भूख-प्यास और थकावट से व्याकुल हुए राजा परीक्षित को उन मौनव्रत धारी शान्त महर्षि पर तत्काल क्रोध आ गया। राजा को यह पता नहीं था कि महर्षि मौनव्रत धारी हैं; अतः क्रोध में भरे हुए आपके पिता ने उनका तिरस्कार कर दिया। भरतश्रेष्ठ ! उन्होंने धनुष की नोक से पृथ्वी पर पड़े हुए एक मृत सर्प को उठाकर उन शुद्धात्मा महर्षि के कंधे पर डाल दिया। किंतु उन मेधावी मुनि ने इसके लिये उन्हें भला या बुरा कुछ नहीं कहा। वे क्रोध रहित हो कंधे पर मरा सर्प लिये हुए पूर्ववत शान्तभाव से बैंठे रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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