महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 42-51

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तिहत्तरवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तिहत्तरवाँ अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
जो पुरूष सदा सावधान रहकर इस उपयुक्त धर्म का पालन करता है तथा जो सत्यवादी, गुरूसेवापरायण, दक्ष, क्षमाशील, देवभक्त, शान्तचित्त, पवित्र, ज्ञानवान, धर्मात्मा और अहंकार शून्य होता है वह यदि पूर्वोक्त विधि से ब्राह्माण को दूध देने वाली गाय का दान करे तो उसे महान फल की प्राप्ति होती है। इन्द्र। जो सदा एक समय भोजन करके नित्य गोदान करता है, सत्य में स्थित होता है, गुरू की सेवा और वेदों का स्वाध्याय करता है, जिसके मन में गौओं के प्रति भक्ति है, जो गौओं का दान देकर प्रसन्न होता है तथा जन्म से ही गौओं को प्रणाम करता है, उसको मिलने वाले इस फल का वर्णन सुनो। राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है तथा बहुत से सुवर्ण की दक्षणा देकर यज्ञ करने से जो फल मिलता है, उपर्युक्त मनुष्य भी उसके समान ही उत्तम फल का भागी होता है। यह सभी सिद्व-संत-महात्मा एवं ऋषियों का कथन है।जो गौ सेवा का व्रत लेकर प्रतिदिन भोजन से पहले गौओं को गौ ग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोभ होकर सदा सत्य का पालन करता रहता है, वह सत्य शील पुरूष प्रतिवर्ष एक सहस्त्र गोदान करने पुण्य का भागी होता है। जो गो सेवा का व्रत लेने वाला पुरूष गौओं पर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समय का भोजन गौओं का दे देता है, इस प्रकार दस वर्षों तक गौ सेवा में तत्पर रहने वाले पुरूष को अनन्त सुख प्राप्त होते हैं । शतक्रतो। जो एक समय भोजन करके दूसरे समय के बचाये हुए भोजन से गाय खरीद कर उसका दान करता है, वह उस गौ के जितने रोये होते हैं, उतने गौओं के दान का अक्षय फल पाता है। यह ब्राह्माण के लिये फल बताया गया। अब क्षत्रीय को मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। यदि क्षत्रिय इसी प्रकार पांच वर्षों तक गौ की आराधना करे तो उसे वही फल प्राप्त होता है। उससे आधे समय में वैश्‍य को और उससे भी आधे समय में शूद्र को उसी फल की प्राप्ति बतायी गयी है। जो अपने आपको बेचकर भी गाय को खरीदकर उसका दान करता है, वह ब्रम्हाण्ड में जब तक गो जाति की सत्ता देखता है, तब तक उस दान का अक्षय फल भोगता रहता है। महाभाग इन्द्र। गौओं के रोम-रोम में अक्षय लोकों की स्थिति मानी गयी है। जो संग्राम में गौओं को जीतकर उनका दान कर देता है, उनके लिये वे गौऐं स्वयं अपने को बेचकर लेकर दी हुई गौओं के समान अक्षय फल देने वाली होती हैं- इस बात को तुम जान लो। जो संयम और नियम का पालन करने वाला पुरूष गौओं के अभाव में तिल धेनु का दान करता है, वह उस धेनु की सहायता पाकर दुर्गम संकट से पार हो जाता है तथा दूध की धारा बहाने वाली नदी के तट पर रहकर आनन्द भोगता है। केवल गौओं का दान मात्र कर देना प्रषन्सा की बात नहीं है, उसके लिये उत्तम पात्र, उत्तम समय, विशिष्ट गौ, विधि और काल का ज्ञान आवश्‍यक है। विप्रवर। गौओं में जो परस्पर तारतम्य है, उसको तथा अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को जानना बहुत ही कठिन है। जो वेदों के स्वाध्याय से सम्पन्न तथा शुद्व कुल में उत्पन्न, शान्त भाव, यज्ञ परायण, पापभीरू और बहुज्ञ है, जो गौओं के प्रति क्षमा भाव रखता है, जिसका स्वभाव अत्यन्त तीखा नहीं है, जो गौओं की रक्षा करने में समर्थ और जीविका से रहित है, ऐसे ब्राह्माण को गोदान का उत्तम पात्र बताया गया है। जिसकी जीविका क्षीण हो गयी हो तथा जो अत्यन्त कष्ट पा रहा हो, ऐसे ब्राह्माण को सामान्य देश-काल में भी दूध देने वाली गाय का भी दान करना चाहिये। इसके सिवा खेती के लिये, होम-सामग्री के लिये, प्रसूता स्त्री के पोषण के लिये, गुरू दक्षिणा के लिये अथवा शिशु पालन के लिये सामान्य देश-काल में भी दुधारू गाय का दान करना उचित है। गर्भिणी, खरीदकर लायी हुई, ज्ञान या विद्या के बल से प्राप्त की हुई, दूसरे प्राणियों के बदले में लायी हुई अथवा युद्व में पराक्रम प्रकट करके प्राप्त की हुई, दहेज में मिली हुई, पालन में कष्ट समझकर स्वामी के द्वारा परित्यक्त हुई तथा पालन-पोषण के लिये आपने पास आई हुई विषिष्ठ गौऐं इन उपर्युक्त कारणों से ही दान के लिये प्रशंसनीय मानी गयी हैं। हुष्ट-पुष्ट, सीधी-साधी, जवान और उत्तम गंध वाली सभी गौऐं प्रशंसनीयमानी गयी हैं। जैसे गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार कपिला गौ सब गौओं में उत्तम है।(गोदान की विधि इस प्रकार है-) दाता तीन रात तक उपवास करके केवल पानी के आधार पर रहे, पृथ्वी पर शयन करे और गौओं को घास-भूसा खिलाकर पूर्ण तृप्त करे। तत्पश्‍चात्ब्राह्माणों को भोजन आदि से संतुष्ट करके उन्हें वह गौऐं दे। उन गौओं के साथ दूध पीने वाले हुष्ट-पुष्ट बछड़े भी होने चाहिये तथा वैसी ही स्फूर्ति युक्त गौऐं भी हों। गोदान करने के पश्चात तीन दिनों तक केवल गोरस पीकर रहना चाहिये। जो गौ सीधी-सूधी हो, सुगमता से अच्छी तरह दूध दुहा लेती हों, जिसका बछड़ा भी सुन्दर हो तथा जो बन्धन तुड़ाकर भागने वाली न हो, ऐसी गौ का दान करने से उसके शरीर में जितने रोय होते हैं, उतने वर्षों तक दाता परलोक में सुख भोगता है । जो मनुष्य ब्राह्माण को बोझ उठाने में समर्थ, जवान, वलिष्ठ, विनीत, सीधा-साधा, हल खींचने वाला और अधिक शक्तिशाली बैल दान करता है, वह दस धेनु दान करने वाले के लोकों में जाता है। इन्द्र। जो दुर्गम वन में फंसे हुए ब्राह्माण और गौ का उद्वार करता है, वह एक ही क्षण में समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा उसे जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, वह भी सुन लो। सहस्त्राक्ष। उसे अश्‍वमेध यज्ञ के समान अक्षय फल सुलभ होता है। वह मृत्यु के काल में जिस स्थिति की आकांक्षा करता है, उसे भी पा लेता है। नाना प्रकार के दिव्य लोक तथा उसके हृदय में जो-जो कामना होती हैं, वह सब कुछ मनुष्य उपर्युक्त सत्मकर्म प्रवाभ से प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं वह गौओं से अनुग्रहित होकर सर्वत्र पूजित होता है। शतक्रतो। जो मनुष्य उपर्युक्त् विधि से वन में जाकर गौओं का अनुसरण करता है तथा निःस्पृह, संयमी और पवित्र होकर घास-पत्ते एवं गोबर खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह मन में कोई कामना न होने पर लोक में देवताओं के साथ आनन्दपूर्वक निवास करता है। अथवा उसकी जहां इच्छा होती है, उन्हीं लोकों में चला जाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें ब्रह्माजी और इन्द्र संवादविषयक गोदान सम्बन्धी तिहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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