त्रिपंचाशत्तमो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: त्रिपंचाशत्तमो अध्याय: श्लोक 1- 26 का हिन्दी अनुवाद
शौनकजी ने पूछा—सूतनन्दन ! पाण्डववंशी बुद्धिमान राजा जनमेजय के उस सर्पयज्ञ में कौन-कौन से महर्षि ऋत्विज बने थे? उस अत्यन्त भयंकर सर्पसत्र में, जो सर्पों के लिये महान भयदायक और विषादजनक था, कौन-कौन से मुनि सदस्य हुए थे? तात ! ये सब बातें आप विस्तारपूवर्क बताइये। सूतपुत्र ! यह भी सूचित कीजिये कि सर्पसत्र की विधि को जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ समझे जाने योग्य कौन-कौन से महर्षि वहाँ उपस्थित थे। उग्रश्रवाजी ने कहा— शौनकजी ! मैं आपको उन मनीषी महात्माओं के नाम बता रहा हूँ, जो उस समय राजा जनमेजय के ऋत्विज और सदस्य थे। उस यज्ञ में वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण चण्डभार्गव होते थे। उनका जन्म च्यवनमुनि के वंश में हुआ था। वे उस समय के विख्यात कर्मकाण्डी थे। वृद्ध एवं विद्वान ब्राह्मण कौत्स उद्राता, जैमिनि ब्रह्मा तथा शार्गरव और पिंगल अध्वर्यु थे। इसी प्रकार पुत्र और शिष्यों सहित भगवान वेदव्यास, उद्दालक, प्रमतक, श्वेतकेतु, पिंगल, असित, देवल, नारद, पर्वत, आत्रेय, कुण्ड, जटर, द्विजश्रेष्ठ, कालघट, वात्स्य, जप और स्वाध्याय में लगे रहने वाले बूढ़े श्रुतश्रवा, कोहल, देवशर्मा, मौद्रल्य तथा समसौरभ—ये और अन्य बहुत से वेदविद्या के पारंगत, ब्राह्मण जनमेजय के उस सर्पयज्ञ में सदस्य बने थे। उस समय उस महान यज्ञ सर्पसत्र में ज्यों-ज्यों ऋत्विज लोग आहुतियाँ डालते, त्यों-त्यों प्राणिमात्र को भय देने वाले घोर सर्प वहाँ आ-आकर गिरते थे। नागों की चर्बी और मेद से भरे हुए कितने ही नाले बह चले। निरन्तर जलने वाले सर्पों की तीखी दुर्गन्ध चारों और फैल रही थी। जो आग में पड़ रहे थे, जो आकाश में ठहरे हुए थे और जो जलती हुई आग की ज्वाला में पक रहे थे, उन सभी सर्पों का करूण क्रन्दन निरन्तर जोर-जोर से सुनायी पड़ता था। नागराज तक्षक ने जब सुना कि राजा जनमेजय ने सर्पयज्ञ की दीक्षा ली है, तब उसे सुनते ही वह देवराज इन्द्र के भवन में चला गया। वहाँ उसने सब बातें ठीक-ठीक कह सुनायीं। फिर सर्पों में श्रेष्ठ तक्षक ने अपराध करने के कारण भयभीत हो इन्द्रदेव की शरण ली। तब इन्द्र ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा—'नागराज तक्षक ! तुम्हें यहाँ उस सर्पयज्ञ से कदापि कोई भय नहीं है। तुम्हारे लिये मैंने पहले से ही पितामह ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया है, अतः तुम्हें कुछ भी भय नहीं है। तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये।' उग्रश्रवाजी कहते हैं—इन्द्र के इस प्रकार आश्वासन देने पर सर्पों में श्रेष्ठ तक्षक उस इन्द्र भवन में ही सुखी एवं प्रसन्न होकर रहने लगा। नाग निरन्तर उस यज्ञ की आग में आहुति बनते जा रहे थे। सर्पों का परिवार अब बहुत थोड़ा बच गया था। यह देख वासुकि नाग अत्यन्त दुखी हो मन-ही-मन संतप्त होने लगे। सर्पों में श्रेष्ठ वासुकि पर भयानक मोह-सा छा गया, उनके हृदय में चक्कर आने लगा। अतः वे अपनी बहिन से इस प्रकार बोले—‘भद्रे ! मेरे अंगों में जलन हो रही है। मुझे दिशाएँ नहीं सूझतीं। मैं शिथिल- सा हो रहा हूँ और मोहवश मेरे मस्तिष्क में चक्कर सा आ रहा है, मेरे नेत्र घूम रहे हैं, हृदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होता जा रहा है। जान पड़ता है, आज मैं भी विवश होकर उस यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में गिर पडूँगा।' ‘जनमेजय का वह यज्ञ हम लोगों की हिंसा के लिये ही हो रहा है। निश्चय ही अब मुझे भी यमलोक जाना पड़ेगा।' ‘बहिन ! जिसके लिये मैंने तुम्हारा विवाह जरत्कारू मुनि से किया था, उसका यह अवसर आ गया है। तुम बान्धवों सहित हमारी रक्षा करो।' ‘श्रेष्ठ नागकन्ये ! पूर्वकाल में साक्षात ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था—‘आस्तीक उस यज्ञ को बंद कर देगा।' ‘अतः वत्से ! आज तुम बन्धु-बान्धवों सहित मेरे जीवन को संकट से छुड़ाने के लिये वे दवेत्ताओं में श्रेष्ठ अपने पुत्र कुमार आस्तीक से कहो। वह बालक होने पर भी वृद्ध पुरूषों के लिये भी आदरणीय है।'
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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