अठहत्तरवाँ अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: अठहत्तरवाँ अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
- वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि एवं महिमा बताना
भीष्मजी कहते हैं- राजन। एक समय की बात है, वक्ताओं में श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी राजा सौदान ने सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाले, वैदिक ज्ञान के भण्डार, सिद्व सनातन ऋषि श्रेष्ठ वषिष्ठजी से, जो उन्हीं के पुरोहित थे, प्रणाम करके इस प्रकार पूछना आरंभ किया। सौदास बोले- भगवन। निष्पाप महर्षे। तीनों लोकों में ऐसी पवित्र वस्तु कौन कही जाती है जिसका नाम लेने मात्र से मनुष्य को सदा उत्तम पुण्य की प्राप्ति हो सके? भीष्मजी कहते हैं- राजन। अपने चरणों में पड़े हुए राजा सौदास से गवोपनिषद् (गौओं की महिमा के गूढ रहस्य को प्रकट करने वाली विद्या) के विद्वान पवित्र महर्षि वषिष्ठ ने गौओं को नमस्कार करके इस प्रकार कहना आरंभ किया- ‘राजन। गौओं के शरीर से अनेक प्रकार की मनोरम सुगंध निकलती हरती है तथा बहुतेरी गौऐं गुग्गल के समान गंध वाली होती हैं। गौऐं समस्त प्राणियों की प्रतिष्ठा (आधार) हैं और गौऐं ही उनके लिये महान मंगल की निधि हैं। गौऐं ही भूत और भविष्य हैं। गौऐं ही सदा रहने वाली पुष्टि का कारण तथा लक्ष्मी की जड़ हैं। गौओं को जो कुछ दिया जाता है, उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता। ‘गौऐं ही सर्वोत्तम अन्न की प्राप्ति में कारण हैं। वे ही देवताओं को उत्तम हविष्य प्रदान करती हैं। स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वश ट्कार (इन्द्रयाग)- ये दोनो कर्म सदा गौओं पर अबलम्बित हैं। ‘गौऐं ही यज्ञ का फल देने वाली हैं। उन्हीं में यज्ञों की प्रतिष्ठा है। गौऐं ही भूत और भविष्य हैं। उन्हीं में यज्ञ प्रतिष्ठित हैं, अर्थात यज्ञ गौओं पर ही निर्भर हैं । ‘महातेजस्वी पुरूष प्रवर। प्रातःकाल और सायंकाल सदा होम के समय ऋषियों का गौऐं ही हवनीय पदार्थ (घृत आदि) देती हैं। ‘प्रभो। जो लोग (नव प्रसूति का दूध देने वाली) गौ का दान करते हैं वे जो कोई भी दुर्गम संकट आने वाले हैं, उन सबसे अपने किये हुए दुष्कर्मों से तथा समस्त पाप समूह से भी तर जाते हैं। ‘जिसके पास दा गौऐं हों, वह एक गौ का दान करे। जो सौ गाय रखता हो, वह दस गौओं का दान करे और जिसके पास एक हजार गौऐं मौजूद हों वह सौ गौऐं दान में दे तो इन सबको बरावर ही फल मिलता है । ‘जो सौ गौओं का स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, जो हजार गौऐं रखकर भी यज्ञ नहीं करता तथा जो धनी होकर भी कृपणता नहीं छोड़ता- ये तीनों मनुष्य अर्ध्य (सम्मान) पाने के अधिकारी नहीं हैं । ‘जो उत्तम लक्षणों से युक्त कपिला गौ को वस्त्र ओढ़ाकर बछड़े सहित उसका दान करते हैं और उसके साथ दूध दोहने के लिये कांस्य का एक पात्र भी देते हैं वे इहलोक और परलोक दोनों पर विजय पाते हैं । ‘शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश। जो लोग जवान, सभी इन्द्रियों से सम्पन्न, सौ गायों यूथपति, बड़ी-बड़ी सींगों वाले गवेन्द्र वृषभ (सांड़) को सुसज्जित करके सौ गायों सहित उसे श्रोत्रिय ब्राह्माण को दान करते हैं, वे जब-जब इस संसार में जन्म लेते हैं तब-तब महान ऐश्वर्य के भागी होते हैं। ‘गौओं का नाम- कीर्तन किये बिना न सोयें, उनका स्मरण करके ही उठें और सबेरे-शाम उन्हें नमस्कार करें। इससे मनुष्य को बल एवं पुष्टि प्राप्त होती है । ‘गौओं केमूत्र और गोबर से किसी प्रकार उद्विग्न न हो, घृणा न करें और उनका मांस न खाऐं। इससे मनुष्य को पुष्टि प्राप्त होती है। ‘प्रतिदिन गौओं का नाम लें। उनका कभी अपमान न करें। यदि बुरे स्वप्न दिखाई दे तो मनुष्य गौ माता का नाम लें। ‘प्रतिदिन शरीर में गोबर लगाकर स्नान करें। सूखे हुए गोबर पर बैठें। उस पर थूक न फैंकें, मल-मूत्र न छोड़ें तथा गौओं के तिरस्कार से बचता रहे। ‘भीगे हुए गौ चर्म पर बैठकर भोजन करें। पश्चिमदिशा की ओर देखें और मौन हो भूमि पर बैठकर घी का भक्षण करें। इससे सदा गौओं की वृद्वि एवं पुष्टि होती है। ‘अग्नि में घृत से हवन करें। घृत से ही स्वस्ति वाचन करायें। घृत का दान करें और स्वयं भी गौ का घृत खायें। इससे मनुष्य सदा गौओं की पुष्टि वृद्वि का अनुभव करता है। ‘ जो मनुष्य सब प्रकार के रत्नों से युक्त तिल की धेनु को ‘गोमां अग्नेविमां अश्वि’ इत्यादि गोमती मंत्र से अभिमंत्रित करके उसका ब्राह्माण को दान करता है, वह किये हुए शुभाशुभ कर्म के लिये शोक नहीं करता । ‘जैसे नदियां समुद्र के पास जाती हैं, उसी तरह सोने के मढ़ी हुई सींगों वाली, दूध देने वाली सुरभि और सौरभेयी गौऐं मेरे निकट आयें। ‘ मैं सदा गौओं का दर्शन करूं और गौऐं मुझ पर कृपा-दृष्टि करें। गौऐं हमारी हैं और हम गौओं के हैं। जहां गौऐं रहें, वहीं हम रहें। ‘जो मनुष्य इस प्रकार रात में या दिन में सम अवस्था में या विषम अवस्था में तथा बड़े-से-बड़े भय आने पर भी गौ माता का नाम कीर्तन करता है, वह भय से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गोदान विषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख