विंशो (20) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
महाभारत: द्रोणपर्व: विंशो अध्याय: श्लोक 33-63 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर ! उस समय वहां आपस में अपने-पराये की पहचान नहीं हो पाती थी । केवल अनुमान अथवा नाम बताने से ही शत्रु-मित्रका विचार करके युद्ध हो रहा था। उन वीरों के मुकुटों, हारों, आभूषणों तथा कवचों में सूर्य के समान प्रभामयी रश्मियॉ प्रकाशित हो रही थी। उस युद्धस्थल में फहराती हुई पताकाओं से युक्त रथों, हाथियों और घोड़ों का रूप बकपंक्तियों से चितकबरे प्रतीत होने वाले मेघों के समान दिखायी देता था। पैदल पैदलों को मार रहे थे, प्रचण्ड घोड़े घोड़ों का संहार कर रहे थे, रथी रथियों का वध करते थे और हाथी बड़े–बड़े हाथियो को चोट पहॅुचा रहे थे। जिनके ऊपर ऊँची पताकाऍ फहरा रही थी, उन गजराजों का शत्रुपक्ष के बडे़-बडे़ हाथियो के साथ क्षणभर में अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ गया। वे एक दूसरे से अपने शरीरों को सटाकर आपस में खीचातानी करते थे। दॉतों से दॉतों पर टक्कर लगने से धूम सहित आग-सी उठने लगती थी। उन हाथियों की पीठ पर फहराती हुई पताकाऍ वहां से टूटकर गिरने लगी । उनके दॉतो के आपस में टकराने से आग प्रकट होने लगी । इससे वे आकाश में छाये हुए बिजली सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। कोई हाथी दूसरे योद्धाओं को उठाकर फेकते थे, कोई गरज रहे थे और कुछ हाथी मरकर धराशायी हो रहे थे । उनकी लाशों से आच्छादित हुई भूमि शरद्ऋतु के आरम्भ में मेघों से आच्छादित आकाश के समान प्रतीत होती थी। बाण, तोमर तथा ऋष्टि आदि अस्त्र–शस्त्रों से मारे जाते हुए गजराजों का चीत्कार प्रलयकाल के मेघों की गर्जना के समान जान पड़ता था। कुछ बडे़ हाथी तोमरों की मार से घायल हो रहे थे, कुछ बाणों की चोट से क्षत-विक्षत हो अत्यन्त भयभीत हो गये थे और कुछ सम्पूर्ण हाथियों के शब्दका अनुसरण करते हुए उन्हीं की ओर बढ़े जा रहे थे। कुछ हाथी वहां हाथियों द्वारा दॉतों से घायल किये जाने पर उत्पातकाल के मेघों के समान भयंकर आर्तनाद कर रहे थे। कितने ही हाथी शत्रुपक्ष के श्रेष्ठ हाथियों द्वारा घायल हो युद्धभूमि से विमुख कर दिये गये थे । वे पुन: महावतों द्वारा उत्तम अकुंशों से हांके जाने पर अपनी ही सेना को रौदते हुए पुन: लौट आ। महावतों ने बाणों और तोमरों से महावतों को भी घायल कर दिया था । अत: वे हाथियों से पृथ्वी पर गिर पड़े और उनके आयुध एवं अकुश हाथों से छूटकर इधर-उधर जा गिरे। कितने ही गजराज मनुष्यों से शून्य हो इधर-उधर चीत्कार करते हुए फिर रहे थे । वे एक दूसरे की सेनामें घुसकर फटे हुए बादलों के समान छिन्न-भिन्न हो धरती पर गिर पड़े। कितने ही बड़े-बड़े हाथी अपनी पीठपर मरकर गिरे हुए आयुध शून्य सवारों को ढोते हुए अकेले विचरने वाले गजराजों के समान सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर लगा रहे थे। उस समय बहुत से हाथी उस युद्धस्थल मे तोमर, ऋष्टि तथा फरसो की मार खाकर घायल हो आर्तनाद करके धरती पर गिर जाते थे। उनके पर्वताकार शरीरों के गिरने से सब ओर से आहत हुई भूमि सहसा कॉपने और आर्तनाद करने लगी। वहां मारे जाकर पताकाओ तथा गजारोहियों सहित सब ओर गिरे हुए हाथियो से आच्छादित हुई वह भूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो इधर-उधर बिखरे हुए पर्वत-खण्डोंसे व्याप्त हो रही हो। उस रणक्ष्ोत्र में कितने ही रथियों ने अपने भल्लों द्वारा हाथी पर बैठे हुए महावतों की छाती छेदकर उन्हें सहसा मार गिराया ।उन महावतों के अकुश और तोमर इधर-उधर बिखर गये थे। कितने ही हाथी नाराचो से घायल हो क्रौच पक्षी की भॉति चिग्घाड़ रहे थे और अपने तथा शत्रुपक्ष के सैनिको को भी रौंदते हुए दसों दिशाओं में भाग रहे थे। राजन ! हाथी, घोड़े तथा रथ योद्धाओं की लाशों से ढकी हुई वहां की भूमिपर रक्त और मांस की कीच जम गयी थी। कितने ही हाथियों ने अपने दॉतों के अग्रभाग से पहियेवाले तथा बिना पहिये के बड़े-बड़े रथों को रथियों सहित चकनाचूर करके अपनी सूँडों से उछालकर फेंक दिया। रथियों से रहित रथ, सवारों से शून्य घोड़े और जिनके सवारमार डाले गये हैं ऐसे हाथी भय से व्याकुल हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग रहे थे। वहां पिता ने पुत्रकों और पुत्र ने पिता को मार डाला । ऐसा भयंकर युद्ध हो रहा था कि किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। मनुष्यों के पैर रक्त की कीच में टखनों तक धॅस जाते थे । उस समय वे दहकते हुए दावानलसे घिरे हुए बड़े-बड़े वृक्षों के समान जान पड़ते थे। योद्धाओं के वस्त्र, कवच, ध्वज और पताकाऍ रक्त से सींच उठी थीं । वहां सब कुछ रक्त से रँगकर लाल-ही-लाल दिखायी देता था। रणभूमि में गिराये हुए घोड़ों, रथो और पैदलों के समुदाय बारंबार आते-जाते रथोंके पहियों से कुचलकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे। वह सेनाका समुद्र हाथियों के समूहरूपी महान् वेग, मरे हुए मनुष्यरूपी सेवार तथा रथसमूहरूपी भयंकर भॅवरों के कारण अद्रुत शोभा पा रहा था। विजयरूपी धन की इच्छा रखनेवाले योद्धारूपी व्यापारी वाहनरूपी बड़ी-बड़ी नौकाओं द्वारा उस सैन्य-समुद्र में उतरकर डूबते हुए भी प्राणों का मोह नहीं करते थे। वहां समस्त योद्धाओं पर बाणों की वर्षा हो रही थी । कहीं उनके चिन्हों के नष्ट हो जानेपर भी मोह को नहीं प्राप्त हुआ। इस प्रकार जब अत्यन्त भयंकर घोरयुद्ध चल रहा था, उस समय शत्रुओं को मोहित करके द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर पर आक्रमण किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में संकुलयुद्धविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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