महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-24
एकविंशो (21) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
द्रोणाचार्य के द्वारा सत्यजित्, शतानीक, दृढसेन, क्षेम, वसुदान तथा पाचालराजकुमार आदि का वध और पाण्डवसेना की पराजय
संजय कहते हैं – राजन ! तदनन्तर युधिष्ठिर ने द्रोण को अपने समीप आया देख एक निर्भय वीर की भॉति बाणों की बड़ी भारी वर्षा करके उन्हें रोक दिया। उस समय युधिष्ठिर की सेना में महान् कोलाहल मच गया । जैसे विशाल सिंह हाथियों के यूथपतियों को पकड़ना चाहता हो, उसी प्रकार द्रोणाचार्य युधिष्ठिर को अपने काबू मे करना चाहते थे। यह देख सत्यपराक्रमी शूरवीर सत्यजित् युधिष्ठिर की रक्षा के लिये द्रोणाचार्य पर टूट पड़ा। फिर तो आचार्य और पाचालराजकुमार दोनो महाबली वीर इन्द्र और बलि की भॉति उस सेनाको विक्षुब्ध करते हुए आपस में जूझने लगे। सत्यपराक्रमी महाधनुर्धर सत्यजित् ने अपने उत्तम अस्त्र का प्रदर्शन करते हुए तेज धारवाले एक बाण से द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। फिर उनके सारथिपर सर्पविष एवं यमराज के समान भयंकर पॉच बाणों का प्रहार किया । उन बाणों की चोट से द्रोणाचार्य का सारथि मूर्च्छित हो गया। इसके बाद शत्रुसूदन ने सहसा दस शीघ्रगामी बाणो द्वारा उनके घोड़ों को बींध डाला और कुपित होकर दोनो पृष्ठरक्षकों को भी दस-दस बाण मारे। तत्पश्चात् शत्रुसूदन सत्यजित् ने अत्यन्त कुपित हो सेना के प्रमुख भाग में मण्डलाकार विचरते हुए अपने बाण द्वारा द्रोणाचार्य के ध्वज को भी काट डाला। तब शत्रुओं का दमन करनेवाले द्रोणाचार्य ने युद्धस्थल में उसका वह पराक्रम देख मन-ही-मन समयोचित कर्तव्य का चिन्तन किया। तदनन्तर आचार्य ने सत्यजित् के बाण सहित धनुष को काटकर मर्मस्थल को विदीर्ण करनेवाले दस पैने बाणों द्वारा उसे शीघ्र ही घायल कर दिया। राजन ! धनुष कट जानेपर प्रतापी वीर सत्यजित् ने शीघ्र ही दूसरा धनुष लेकर कंक की पॅख से युक्त तीस बाणों द्वारा द्रोणाचार्यको गहरी चोट पहॅुचायी । उस युद्धस्थल में द्रोणाचार्य को सत्यजित् के बाणों के ग्रास बनते देख पाचाल वीर वृकने भी सैकड़ों पैने बाण मारकर द्रोणाचार्य को अत्यन्त पीडित कर दिया। राजन ! महारथी द्रोणाचार्य को समरभूमि में बाणों द्वारा आच्छादित होते देख समस्त पाण्डव सैनिक गर्जने और वस्त्र हिलाने लगे। नरेश्वर ! बलवान वृकने अत्यन्त कुपित होकर द्रोणाचार्य की छाती में साठ बाण मारे । वह अद्रुत सी बात थी। इस प्रकार बाण वर्षा से आच्छादित होने पर महान् वेगशाली महारथी द्रोण ने क्रोध से ऑखे फाड़कर देखते हुए अपना विशेष वेग प्रकट किया। आचार्य द्रोण ने सत्यजित् और वृक दोनों के धनुष काटकर छ: बाणों द्वारा उन्होंने सारथि और घोड़ों सहित वृक को मार डाला। इतने में ही अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष लेकर सत्यजित् ने अपने बाणों द्वारा घोड़े, सारथि और ध्वज सहित द्रोणाचार्य को बींध डाला। संग्राम मे पाचालराजकुमार सत्यजित् से पीडित होकर द्रोणाचार्य उसके पराक्रम को न सह सके । इसलिये तुरंत ही उसके विनाश के लिये उन्होंने बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। द्रोण ने सत्यजित् के घोड़ों, ध्वज, धनुष की मुष्टि तथा दोनो पार्श्वरक्षकों पर सहस्त्रों बाणों की वर्षा की। इस प्रकार बारंबार धनुषों के काटे जानेपर भी उत्तम अस्त्रो का ज्ञाता पाचालवीर सत्यजित् लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य से युद्ध करता ही रहा। उस महासमर में सत्यजित् को प्रचण्ड होते देख द्रोणाचार्यने अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा उस महामनस्वी वीर का मस्तक काट डाला। उस महाबली महारथि पाचाल वीर के मारे जाने पर युधिष्ठिर द्रोणाचार्य से अत्यन्त भयभीत हो गये और वेगशाली घोड़ो से जुते हुए रथ के द्वारा युद्धस्थल से दूर चले गये। उस समय युधिष्ठिर की रक्षा के लिये पाचाल, केकय, मत्स्य, चेदि, कारूष और कोसल देशों के योद्धा द्रोणाचार्य को देखते ही उन पर टूट पड़े। तब शत्रु समूहोंका नाश करनेवाले द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये उन समस्त सैनिकों का उसी प्रकार संहार कर डाला, जैसे आग रूई के ढेर को जला देती है। उन समस्त सैनिकों को बार-बार बाणों की आग से दग्ध करते देख विराट के छोटे भाई शतानीक द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। उन्होंने कारीगर के द्वारा स्वच्छ किये हुए सूर्यकी किरणों के समान चमकीले छ: बाणों द्वारा सारथि और घोड़ों सहित द्रोणाचार्य को घायल करके बड़े जोर से गर्जना की। तत्पश्चात् दुष्कर पराक्रम करने की इच्छा से क्रूरतापूर्ण कर्म करनेके लिये तत्पर हो उन्होंने महारथी द्रोणाचार्य पर सौ बाणों की वर्षा की। तब द्रोणाचार्य ने वहां गर्जना करते हुए शतानीक के कुण्डलसहित मस्तक को क्षुर नामक बाण द्वारा तुरंत ही धड़से काट गिराया । यह देख मत्स्यदेश के सैनिक भाग खड़े हुए। इस प्रकार भरदाजनन्दन द्रोणाचार्य ने मत्स्यदेशीय योद्धाओं को जीतकर चेदि, करूष, केकय, पाचाल, सृंजय तथा पाण्डव सैनिकों को भी बारंबार परास्त किया। जैसे प्रज्वलित अग्नि सारे वन को जला देती हैं, उसी प्रकार क्रोध में भयंकर शत्रुकी सेनाओं को दग्ध करते हुए सुवर्णमय रथवाले वीर द्रोणाचार्यको देखकर सृंजयवंशी क्षत्रिय कॉपने लगे। उत्तम धनुष लेकर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने और शत्रुओं का वध करनेवाले द्रोणाचार्य की प्रत्यवा का शब्द सम्पूर्ण दिशाओं में सुनायी पड़ताथा। शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले द्रोणाचार्य के छोड़े हुए भयंकर सायक हाथियों, घोड़ों, पैदलों, रथियों और गजारोहियों को मथे डालते थे। जैसे हेमन्त ऋतु के अन्त में अत्यन्त गर्जना करता हुआ वायुयुक्त मेघ पत्थरों की वर्षा करता हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य शत्रुओं को भयभीत करते हुए उनके ऊपर बाणों की वर्षा करते थे। बलवान, शूरवीर, महाधनुर्धर और मित्रों को अभय प्रदान करनेवाले द्रोणाचार्य सारी सेनामें हलचल मचाते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में विचर रहे थे।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|