एकविंशो (21) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
महाभारत: द्रोणपर्व: एकविंशो अध्याय: श्लोक 35-65 का हिन्दी अनुवाद
जैसे बादलों में बिजली चमकती है, उसी प्रकार अमित तेजस्वी द्रोणाचार्य के सुवर्ण भूषित धनुष को हम सम्पूर्ण दिशाओं में चमकता हुआ देखते थे। भरतनन्दन ! युद्ध में तीव्र वेग से विचरते हुए आचार्य के ध्वज में जो वेदी का चिन्ह बना हुआ था, वह हमें हिमालय के शिखरकी भॉति शोभायमान दिखायी देता था। जैसे देव-दानववन्दित भगवान विष्णु दैत्यों की सेना में भयानक संहार मचाते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने पाण्डव सेनामें भारी मारकाट मचा रक्खी थी। उन शौर्य सम्पन्न, सत्यवादी, विदवान्, बलवान और सत्यपराक्रमी महानुभाव द्रोण नेउसयुद्धस्थल के समान जान पड़ती थी । वह नदी भीरू पुरूषों को भयभीत करनेवाली थी । उसमें कवच लहरें और ध्वजाऍ भॅवरें थी । वह मनुष्यरूपी तटो को गिरा रही थी । हाथी और घोड़े उसके भीतर बडे़-बडे़ ग्राहो के समान थे । तलवारे मछलियॉ थीं । उसे पार करना अत्यन्त कठिन था । वीरों की हडिडयॉ बालू और कंकड़ सी जान पड़ती थी । वह देखने मे बडी भयानक थी । ढोल और नगाड़े उसके भीतर कछुए से प्रतीत होते थे । ढाल और कवच उसमें डोंगियों के समान तैर रहे थे । वह घोर नदी केशरूपी सेवार और घास से युक्त थी ।बाण ही उसके प्रवाह थे । धनुष स्त्रोत के समान प्रतीत होते थे । कटी हुई भुजाऍ पानी के सर्पो के समान वहां भरी हुई थी । वह रणभूमि के भीतर तीव्र वेग से प्रवाहित हो रही थी । कौरव और सृंजय दोनों को वह नदी बहाये लिये जाती थी । मनुष्यों के मस्तक उसमें प्रस्तर-खण्डका भ्रम उत्पन्न करते थे । शक्तियॉ मीन के समान थी । गदाऍ नाक थी । उष्णीष-वस्त्र (पगड़ी) फेनके तुल्य चमक रहे थे । बिखरी हुई ऑतें सर्पाकार प्रतीत होती थी । वीरों का अपहरण करनेवाली वह उग्र नदी मांस तथा रक्तरूपी कीचड़ से भरी थी । हाथी उसके भीतर ग्राह थे । ध्वजाऍ वृक्ष के तुल्य थी । वह नदी क्षत्रियों को अपने भीतर डुबोनेवाली थी । वहां क्रूरता छा रही थी । शरीर (लाशें) ही उसमें उतरने के लिये घाट थे । योद्धागण मगर जैसे जान पड़ते थे । उसको पार करना बहुत कठिन था । वह नदी लोगों को यमलोक में ले जानेवाली थी । मांसाहारी जन्तु उसके आस-पास डेरा डाले हुए थे । वहां कुत्ते और सियारो के झुंड जुट हुए थे । उसके सब ओर महाभयंकर मास-भक्षी पिशाच निवास करते थे। समस्त सेनाओं को दग्ध करनेवाले यमराज के समान भयंकर उदार महारथी द्रोणाचार्य पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर आदि सब वीर सब ओर से टूट पड़े। उन सभी शूरवीरोंने एक साथ आकर द्रोणाचार्य को सब ओर से उसी प्रकार घेर लिया, जैसे जगत् को तपानेवाले भगवान सूर्य अपनी किरणों से घिरे रहते हैं। आपकी सेना के राजा और राजकुमारों ने अस्त्र-शस्त्र लेकर उन शौर्य सम्पन्न महाधनुर्धर द्रोणाचार्य को उनकी रक्षा के लिये सब ओर से घेर रक्खा था। उस समय शिखण्डी ने झुकी हुई गॉठवाले पॉच बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को बींध डाला । तत्पश्चात् क्षत्रवर्मा ने बीस, वसुदान ने पॉच, उत्तमौजा ने तीन, क्षत्रदेव ने सात, सात्यकि ने सौ, युधामन्यु ने आठ और युधिष्ठिर ने बारह बाणों द्वारा युद्धस्थल में द्रोणाचार्य को घायल कर दिया । धृष्टधुम्न ने दस और चेकितान ने उन्हें तीन बाण मारे। तदनन्तर सत्यप्रतिज्ञ द्रोणने मद की धारा बहानेवाले गजराज कीभॉतिरथ सेना को लॉधकर दृढसेन को मार गिराया। फिर निर्भय-से प्रहार करते हुए राजा क्षेम के पास पहॅुचकर उन्हें नौ बाणों से बींध डाला । उन बाणों से मारे जाकर वे रथ से नीचे गिर गये। यदपि वे शत्रुसेना के भीतर घुसकर सम्पूर्ण दिशाओं में विचर रहे थे, तथापि वे ही दूसरों के रक्षक थे, स्वयं किसी प्रकार किसी के रक्षणीय नही हुए। उन्होंने शिखण्डी को बारह और उत्तमौजा को बीस बाणों से घायल करके वसुदान को एक ही भल्ल से मारकर यमलोक भेज दिया। तत्पश्चात् क्षत्रवर्मा को अस्सी और सुदक्षिण को छब्बीस बाणों से आहृत करके क्षत्रदेव को भल्ल से घायलकर रथकी बैठक से नीचे गिरा दिया। युधामन्यु को चौसठ तथा सात्यकि को तीस बाणों से घायल करके सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य राजा युधिष्ठिर की ओर दौड़े। तब राजाओं मे श्रेष्ठ युधिष्ठिर गुरू के निकट से तीव्रगामी अश्रों द्वारा शीघ्र ही दूर चले गये और पाचाल देश का एक राजकुमार द्रोण का सामना करने के लिये आगे बढ़ आया। परंतु द्रोण ने धनुष, घोड़े और सारथि सहित उसे क्षत-विक्षत कर दिया। उनके द्वारा मारा गया वह राजकुमार आकाश से उल्का की भॉति रथ से भूमिपर गिर पड़ा। पाचालों का यश बढ़ानेवाले उस राजकुमार के मारे जाने पर वहां द्रोणको मार डालो, द्रोण को मार डालो इस प्रकार महान् कोलाहल होने लगा। इस प्रकार अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए पाचाल, मत्स्य, केकय, सृंजय और पाण्डव योद्धाओं को बलवान द्रोणाचार्य ने क्षोभमें डाल दिया। कौरवों से घिरे हुए द्रोणाचार्य ने युद्ध में सात्यकि, चेकितान, धृष्टधुम्न, शिखण्डी, वृद्धक्षेम के पुत्र, चित्रसेन कुमार, सेनाबिन्दु तथा सुवर्चा-इन सबको तथा अन्य बहुत से विभिन्न देशोंके राजाओं को परास्त कर दिया। महाराज ! आपके पुत्रों ने उस महासमर में विजय प्राप्त करके सब ओर भागते हुए पाण्डव-योद्धाओं को मारना आरम्भ किया। भरतनन्दन ! इन्द्रके द्वारा मारे जानेवाले दानवोंकी भॉति महामना द्रोण की मार खाकर पाचाल, केकय और मत्स्य देश के सैनिक कॉपने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में द्रोणाचार्य का युद्धविषयक इक्कीसवॉ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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