महाभारत वन पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-21

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एकादश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व एकादश अध्याय श्लोक 1-27
भीमसेन के द्वारा किर्मीर के वध की कथा

धृतराष्ट्र ने पूछा- विदुर ! मैं किर्मीर वध का वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ, कहो। उस राक्षस के साथ भीमसेन की मुठभेड़ कैसे हुई?

विदुरजी ने कहा- राजन ! मानवशक्ति से अतीत कर्म करने वाले भीमसेन के इस भयानक कर्म को आप सुनिये, जिसे मैंने उन पाण्डवों के कथा प्रसंग में (ब्राह्मणों से) बार-बार सुना है। राजेन्द्र ! पाण्डव जुए में पराजित होकर जब यहाँ से गये, तब तीन दिन चले और रात में काम्यक वन में जा पहुँचे। आधी रात के भयंकर समय में, जब कि भयानक कर्म करने वाले नरभक्षी राक्षस विचरते रहते हैं, तपस्वी मुनि और वनचारी गोपागण भी उस राक्षस के भय से उस वन को दूर से ही त्याग देते थे। भारत ! उस वन में प्रवेश करते ही वह राक्षस उनका मार्ग रोककर खड़ा हो गया। उसकी आँखे चमक रही थीं। वह भयानक राक्षस मशाल लिये आया था। अपनी दोनों भुजाओं को बहुत ही बड़ी करके मुँह को भयानक रूप से फैलाकर वह उसी मार्ग को घेरकर खड़ा हो गया, जिससे वे कुरुवंशशिरोमणि पाण्डव यात्रा कर रहे थे। उसकी आठ दाढ़ें स्पष्ट दिखायी देती थीं, आँखे क्रोध से लाल हो रही थीं एवं सिर के बाल ऊपर की ओर उठे हुए और प्रज्वलित-से जान पड़ते थे। उसे देखकर ऐसा मालूम होता था, मानो सूर्य की किरणों, विद्युत्मंडल और बकपंक्तियों के साथ मेघ शोभा पा रहा है। वह भयंकर गर्जना के साथ राक्षसी माया की सृष्टि कर रहा था। सजल जलधर के समान जोर-जोर से सिंहनाद करता था।

उसकी गर्जना से भयभीत हुए स्थलचर पक्षी जलचर पक्षियों के साथ चींचीं करते हुए सब दिशाओं में भाग चले। भागते हुए मृग, भेड़िये, भैंसे तथा रीछों से भरा हुआ वह वन उस राक्षस की गर्जना से ऐसा हो गया, मानो वह वन ही भाग रहा हो। उसकी जाँघों की हवा के वेग से आह्रत हो ताम्रवण के पल्लवरूपी बाँहों द्वारा सुशोभित दूर की लताएँ भी मानो वृक्षों से लिपटी जाती थीं। इसी समय बड़ी प्रचण्ड वायु चलने लगी। उसकी उड़ायी हुई धूल से आच्छादित हो आकाश के तारे भी अस्त हो गये-से जान पड़ते थे। जैसे पाँचों इन्द्रियों को अकस्मात अतुलित शोकावश प्राप्त हो जाये, उसी प्रकार पाँचों पाण्डवों का वह तुलनारहित सहसा महान शत्रु सहसा उनके पास आ पहुँचा; पर पाण्डवों को उस राक्षस का पता नहीं था। उसने दूर से ही पाण्डवों को कृष्ण मृगचर्म धारण किये आते देख मैनाक पर्वत की भाँति उस वन के प्रवेशद्वार को घेर लिया। उस अष्टमपूर्व राक्षस के निकट पहुँचकर कमललोचन कृष्ण ने भयभीत हो अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये। दुःशासन के हाथों से खुले हुए उसके केश सब ओर बिखरे हुए थे। वह पाँच पर्वतों के बीच में पड़ी हुई नदी की भाँति व्याकुल हो उठी। उसे मूर्च्छित होती हुई देख पाँचों पाण्डवों ने सहारा देकर उसी तरह थाम लिया, जैसे विषयों में आसक्त हुई इन्द्रियाँ तत्सम्बंधी अनुरक्ति को धारण किये रहती हैं। तदनन्तर वहाँ प्रकट हुई अत्यन्त भयानक राक्षसी माया को देख शक्तिशाली धौम्य मुनि ने अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए राक्षस विनाशक विविध मन्त्रों द्वारा पाण्डवों के देखते-देखते उस माया का नाश कर दिया। माया नष्ट होते ही वह अत्यन्त बलवान एवं इच्छानुसार रूप धारण करने वाला क्रूर राक्षस आँखें फाड़-फाड़कर देखता हुआ काल के समान दिखायी देने लगा। उस समय परम बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने पूछा--। ‘तुम कौन हो , किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाये? यह सब बताओ।‘ तब उस राक्षस ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘मैं बका का का भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवन में निवास करता हूँ। यहाँ मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। ‘यहाँ आये हुए मनुष्यों को युद्ध में जीतकर सदा उन्हीं को खाया करता हूँ। तुम लोग कौन हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बनने के लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सब को युद्ध में परास्त करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा।'

वैशम्पायनजी कहते हैं - भारत ! उस दुरात्मा की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे गोत्र एवं नाम आदि सब बातों का परिचय दिया।

युधिष्ठिर बोले- मैं पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानों में भी पड़ा हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओं ने जुए में हरण कर लिया है। अतः मैं भीमसेन, अर्जुन आदि सब भाइयों के साथ वन में रहने का निश्चय करके तुम्हारे निवास स्थान इस घोर काम्ययकवन में आया हूँ।

विदुरजी कहते हैं - राजन ! जब किर्मीर ने युधिष्ठिर से कहा- ‘आज सौभाग्यवश देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनों के मनोरथ की पूर्ति कर दी। ‘मै प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेन का वध करने के लिये सारी पृथ्वी पर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था। ‘आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाई का हत्यारा है, मैं बहुत दिनों से इसकी खोज में था। राजन ! इसने(एक चक्रा नगरी के पास) वैत्रकीयवन में ब्राह्मण का कपट वेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्या बल का आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुर का वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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