महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 26 श्लोक 38-57
षड् विंशो (26) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
यह देख जिनको अंगो की जोड़ सुन्दर है उन पर्वतराज भगदत्त ने झुकी हुई गॉठवाले बाण के द्वारा रूचिपर्वा को यमलोक पहॅुचा दिया। उस वीर के मारे जाने पर अभिमन्यु, द्रौपदीकुमार, चेकितान, धृष्टकेतु तथा युयुत्सु भी उस हाथी को पीडा देना आरम्भ किया । ये सब लोग उस हाथी को मार डालने की इच्छा से विकट गर्जना करते हुए अपने बाणों की धारा से सींचने लगे, मानो मेघ पर्वत को जल की धारा से नहला रहे हो। तदनन्तर विदान् राजा भगदत्त ने अपने पैरो की एँड़ी, अकुश एवं अगष्ठ से प्रेरित करके हाथी को आगे बढ़ाया । फिर तो अपने कानों को खड़े करके एकटक ऑखों से देखते हुए सॅूड़ फैलाकर उस हाथी ने शीघ्रतापूर्वक धावा किया और युयुत्सु के घोड़ों को पैरों से दबाकर उनके सारथि को मार डाला। राजन ! युयुत्सु बड़ी उतावली के साथ रथ से उतरकर दूर चले गये । तत्पश्चात् पाण्डव योद्धा उस गजराज को शीघ्रतापूर्वक मार डालने की इच्छा से भैरव गर्जना करते हुए अपने बाणों की वर्षा द्वारा उसे सींचने लगे। उस समय घबराये हुए आपके पुत्र अभिमन्यु के रथ पर जा बैठे । हाथी की पीठपर बैठे हुए राजा भगदत्त शत्रुओं पर बाण वर्षा करते हुए सम्पूर्ण लोको में अपनी किरणो का विस्तार करनेवाले सूर्य के समान शोभा पा रहे थे। अर्जुनकुमार अभिमन्यु ने बारह, युयुत्सु ने दस और द्रौपदी के पुत्रों तथा धृष्टकेतु ने तीन-तीन बाणों से भगदत्त के उस हाथी को घायल कर दिया। अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक चलाये हुए उन बाणों से हाथी का सारा शरीर व्याप्त हो रहा था । उस अवस्था में वह सूर्य की किरणो में पिरोये हुए महामेघ के समान शोभा पा रहा था। महावत के कौशल और प्रयत्न से प्रेरित होकर वह हाथी शत्रुओं के बाणों से पीडित होने पर भी उन विपक्षियों को दाये-बाये उठाकर फेंकने लगा। जैसे ग्वाला जंगल में पशुओं को डंडे से हांकता है, उसी प्रकार भगदत्त ने पाण्डव सेना को बार-बार घेर लिया। जैसेबाज पक्षी के चंगुल मे फॅसे हुए अथवा उसके आक्रमण से त्रस्त हुए कौओं में शीघ्र ही कॉव-कॉव का कोलाहल होने लगता है, उसी प्रकार भागते हुए पाण्डव योद्धाओं का आर्तनाद जोर-जोर से सुनायी दे रहा था। नरेश्वर ! उस समय विशाल अकुश की मार खाकर वह गजराज पूर्वकाल कें पंखधारी श्रेष्ठ पर्वत की भॉति शत्रुओं को उसी प्रकार अत्यन्त भयभीत करने लगा, जैसे विक्षुब्ध महासागर व्यापारियों को भय मे डाल देता है। महाराज ! तदनन्तर भयसे भागते हुए हाथी, रथ, घोड़े तथा राजाओं ने वहां अत्यन्त भयंकर आर्तनाद फैला दिया । उनके उस भयंकर शब्द ने युद्धस्थल में पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग तथा दिशा विदिशाओं को सब ओर से आच्छादित कर दिया। उस गजराज द्वारा राजा भगदत्त ने शत्रुओं की सेना में अच्छी तरह प्रवेश किया । जैसे पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के समय देवताओं द्वारा सुरक्षित देवसेना में विरोचन ने प्रवेश किया था ।।६७।। उस समय वहां बडे़ जोर से वायु चलने लगी । आकाश में धूल छा गयी । उस धूल ने समस्त सैनिकों को ढक दिया । उस समय सब हाथी को हाथियों के झुंड सा मानने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्त का युद्धविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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