द्विनवतितमो (92) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विनवतितमो अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
- पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर बह्माजी के पास जाना और अग्नि के द्वारा अजीर्ण का निवारण, श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। इस प्रकार जब महर्षि निमि पहले-पहल श्राद्ध में प्रवृत हुए, उसके बाद सभी महर्षि शास्त्रविधि के अनुसार पितृयज्ञ का अनुष्ठान करने लगे। सदा धर्म में तत्पर रहने वाले और नियम पूर्वक व्रत धारण करने वाले महर्षि पिण्डदान करने के पश्चात तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी करते थे। भारत। धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवतओं और पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध में भोजन करते-करते वे देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गये। अब वे अन्न पचाने के प्रयत्न में लगे। अजीर्ण से उन्हें विशेष कष्ट होने लगा। तब वे सोम देवता के पास गये। सोम के पास जाकर वे अजीर्ण से पीड़ित पितर इस प्रकार बोले- ‘देव। हम श्राद्वान्नसे बहुत कष्ट पा रहे हैं। अब आप हमारा कल्याण कीजिये।
तब सोम ने उनसे कहा- ‘देवताओं’ यदि आप कल्याण चाहते हैं तो ब्रह्माजी की शरण में जाइये वही आप लोगों का कल्याण करेंगे। भरतनन्दन। सोम के कहने से वे पितरों सहित मेरू पर्वत के शिखर पर विराजमान ब्रह्माजी के पास गये। पितरों ने कहा- भगवन। निरन्तर श्राद्ध का अन्न खाने से हम अजीर्णत वश अत्यन्त कष्ट पा रहे हैं। देव। हम लोगों पर कृपा कीजिये और हमें कल्याण का भागी बनाइये। पितरों की यह बात सुनकर स्वयंभू ब्रह्माजी ने इस प्रकार कहा- ‘देवगण। मेरे निकट ये अग्निदेव विराजमान है। ये ही तुम्हारे कल्याण की बात बतायेंगे। अग्नि बोले- देवताओ और पितरों अब से श्राद्ध का अवसर उपस्थित होने पर हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोग उस अन्न को पचा सकेंगे, इसमें संशय नहीं है। नरेश्वर। अग्नि की यह बात सुनकर वे पितर निश्चिंत हो गये; इसलिये श्राद्ध में पहले अग्नि को ही भाग अर्पित किया जाता है। पुरूष प्रवर। अग्नि में हवन करने वाद जो पितरों के निमित्त पिण्डदान दिया जाता है उसे ब्रह्म राक्षस दूषित नहीं करते हैं। अग्निदेव के विराजमान रहने पर राक्षस वहां से भाग जाते हैं। सबसे पहले पिता को पिण्ड देना चाहिये फिर पितामह को। तदनन्तर प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिये। यह श्राद्ध की विधि बताई गयी है। श्राद्ध में एकाग्रचित्त हो प्रत्येक पिण्ड देते समय गायत्री मंत्र का उच्चारण करना चाहिये। पिण्ड-दान के आरंभ में पहले अग्नि और सोम के लिये जो दो भाग दिये जाते हैं, उनके मंत्र कृमषः इस प्रकार हैं- ‘अग्नेय कव्यवाहनाय स्वाहा’, ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’। जो स्त्री रजस्वला हो अथवा जिसके दोनों कान बहरे हो, उसको श्राद्ध में नहीं ठहरना चाहिये। दूसरे वंश की स्त्री को भी श्राद्ध कर्म में नहीं लेना चाहिये। जल को तैरते समय पितामाहों (के नामों) का कीर्तन करें। किसी नदी के तट पर जाने के बाद वहां पितरों के लिये पिण्डदान और तर्पण करना चाहिये। पहले अपने वंश में उत्पन्न पितरों का जल के द्वारा तर्पण करके तत्पश्चात् सुहृदय और सम्बन्धियों के समुदाय का जलांजलि देने चाहिये। जो चितकबरे रंग के बैलों से जुती गाड़ी पर बैठकर नदी के जल को पार कर रहा हो उसके पितर इस समय मानो नाव पर बैठकर उससे जलांजजि पाने की इच्छा रखते हैं।।अतः जो इस बात को जानते हैं, वे इग्राचित्त हो नाव पर बैठने पर सदा ही पितरों के लिये जल दिया करते हैं। महिने का आधा समय बीत जाने पर कृष्णपक्ष की अमावस्या तिथी को अवश्यश्राद्ध करना चाहिये। पितरों की भक्त् से पुष्टि, आयु, वीर्य और लक्ष्मी प्राप्ति होती है। कुरूकुल श्रेष्ठ।ब्रह्मा, पुलस्त्य, वसिष्ठ, पुलह, अंगिरा, क्रतु और महिर्ष कश्यप- ये सात ऋषि महान योगेश्वर और पितर माने गये हैं। राजन। इस प्रकार यह श्राद्ध की उत्तम विधि बतायी गयी है। प्रेत (मरे हुए पिता आदि) पिण्ड के सम्बन्ध से प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं। पुरूषश्रेष्ठ। यह मैंने शास्त्र के अनुसार तुम्हे पूर्व में बताये गये श्राद्ध की उत्पत्ति का प्रसंग विस्तार पूर्वक बताया है। अब दान के विषय में बताऊंगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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