महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 124-136

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त्रिनवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 124-136 का हिन्दी अनुवाद

विश्‍वामित्र बोले- जो इन मृणालों को चुरा ले गया हो, जिस पुरूष के जीवित रहने पर उसके गुरू और माता तथा पिता का दूसरे पुरूष पोषण करें उसको और जिसकी कुगति हुई हो तथा जिसके बहुत से पुत्र हों उसको जो पाप लगता है वह पाप उसे लगे।जिसने मृणालों का अपहरण किया हो, उसे अपवित्र रहने का, वेद को मिथ्या मानने का, धन का घमण्ड करने का, ब्राह्माण होकर खेत जोतने का और दूसरों से डाह रखने का पाप लगे।जिसने मृणाल चुराये हों, उसे वर्षा काल में परदेश की यात्रा करने का, ब्राह्माण होकर वेतन लेकर काम करने का, राजा के पुरोहित तथा यज्ञ के अनधिकारी से भी यज्ञ कराने का पाप लगे। अरून्धती बोली- जो स्त्री मृणालों की चोरी करती हो, उसे प्रति दिन सास का तिरस्कार करने का, अपने पति का दिल दुखाने का, और अकेले ही स्वादिष्ट वस्तुऐं खाने का पाप लगे।जिसने मृणालों की चोरी की हो, उस स्त्री को कुटम्वीजनों का अपमान करके घर में रहने का, दिन बीत जाने पर सत्तू खाने का, कलंकिनी होने के कारण पति के उपभोग में न आने का और ब्राह्मणी होने पर भी क्षत्राणियों के समान उग्र स्वभाव वाले वीर पुत्र की जननी होने का पाप लगे। गण्डा बोली- जिस स्त्री ने मृणाल की चोरी की हो, उसे सदा झूठ बोलने का, भाई-बन्धुओं से लड़ने और विरोध करने और शुल्क लेकर कन्यादान करने का पाप लगे। जिस स्त्री ने मृणाल चुराया हो उसे रसोई बनाकर अकेली भोजन करने का, दूसरों की गुलामी करती-करती ही बूढ़ी होने का और पाप कर्म करके मौत के मुख में पड़ने का पाप लगे। पशुसख बोला- जिसने मृणालों की चोरी की हो उसे दूसरे जन्म में भी दासी के ही घर में पैदा होने, सन्तानहीन और निर्धन होने तथा देवताओं का नमस्कार न करने का पाप लगे। शुनःसख ने कहा- जिसने मृणालों को चुराया हो वह ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वान को कन्या दान दे अथवा वह ब्राह्माण अर्थववेद का अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाये। ऋषियों ने कहा- शुनःसख। तुमने जो शपथ की है, वह तो ब्राह्माणों को अभिष्ट ही है। अतः जान पड़ता है, हमारे मृणालों की चोरी तुमने ही की है। शुनःसख ने कहा- मनुवरो। आपका कहना ठीक है। वास्तव में आपका भोजन मैंने ही रख लिया है। आप लोग जब तर्पण कर रहे थे, उस समय आपकी दृष्टि इधर नहीं थी; तभी मैंने वह सब लेकर रख लिया था। अतः आपका यह कथन कि तुमने ही मृणाल चुराये हैं, ठीक है। मिथ्या नहीं है। वास्तव में मैंने ही उन मृणालों की चोरी की है। मैंने उन मृणालों का यहां छिपा दिया था। देखिये, ये रहे आपके मृणाल। निष्पाप मुनियो। मैंने आप लोगों की परीक्षा के लिये ही ऐसा किया था। मैं आप सब लोगों की रक्षा के लिये यहां आया था। यह यातुधानी अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाली कृत्या थी। और आप लोगों का वध करना चाहती थी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें मृणाली की चोरी का उपाख्यानविषयक नब्बेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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