महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 1-17
त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )
भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना, अर्जुन का उत्तर और आमरण अनशन के लिये बैठे हुए भूरिश्रवा का सात्यकि के द्वारा वध
संजय कहते हैं-राजन ! भूरिश्रवा की सुन्दर बाजूबंद से विभूषित वह उत्तम बांह समस्त प्राणियों के मन में अद्भूतदुःख का संचार करती हुई खड्ग सहित कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। प्रहार करने के लिये उद्यत हुई वह भुजाअ लक्ष्य अर्जुन के बाण से कटकर पांचमुख वाले सर्प की भांति बड़े वेग से पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुन्तीकुमार अर्जुन के द्वारा अपने को असफल किया हुआ देख कुरुवंशी भूरिश्रवा ने कुपित हो सात्यकि को छोड़कर पाण्डुनन्दन अर्जुन की निन्दा करते हुए कहा। महाराज ! वे राजा भूरिश्रवा एक बांह से रहित हो एक पांख के पक्षी और एक पहिये के रथ की भांति पृथ्वी पर खड़े हो सम्पूर्ण क्षत्रियों के सुनते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन से बोले। भूरिश्रवा बोले-कुन्तीकुमार ! तुमने यह बड़ा कठोर कर्म किया है; क्योंकि मैं तुम्हें देख नहीं रहा था और दूसरे से युद्ध करने में लगा हुआ था, उस दशा में तुमने मेरी बांह काट दी है। तुम धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर से क्या कहोगे ? यही न कि ‘भूरिश्रवा किसी और कार्य में लगे थे और मैंने उसी दशा में उन्हें युद्ध में मार डाला है। पार्थ ! इस अस्त्र विद्या का उपदेश तुम्हें साक्षात महात्मा इन्द्र ने दिया हैया रुद्र, द्रोण अथवा कृपाचार्य ने ? तुम तो इस लोक में दूसरों से अधिक अस्त्र-धर्म के ज्ञाता हो, फिर जो तुम्हारे साथ युद्ध नहीं कर रहा था, उस पर संग्राम में तुमने कैसे प्रहार किया ? मनस्वी पुरुष असावधान, डरे हुए , रथहीन, प्राणों की भिक्षा मांगने वाले तथा संकट में पड़े हुए मनुष्य पर प्रहार नहीं करते हैं। पार्थ ! यह नीच पुरुषों द्वारा आचरित और दुष्ट पुरुषों द्वारा सेवित अत्यन्त दुष्कर पाप कर्म तुमने कैसे किया ? धनंजय ! श्रेष्ठ पुरुष के लिये श्रेष्ठ कर्म ही सुकर बताया गया है। नीच कर्म का आचरण तो इस पृथ्वी पर उसके लिये अत्यन्त दुष्कर माना गया है। नरव्याघ्र ! मनुष्य जहां-जहां जिन-जिन लोगों के समीप रहता है, उसमें शीघ्र ही उन लोगों का शील-स्वभाव आ जाता है; यही बात तुममें भी देखी जाती है। अन्यथा राजा के वंशज और विशेषतः कुरुकुल में उत्पन्न होकर भी तुम क्षत्रिय-धर्म से कैसे गिर जाते ? तुम्हारा शील-स्वभाव तो बहुत उत्तम था और तुमने श्रेष्ठ व्रतों का पालन भी किया था। तुमने सात्यकि को बचाने के लिये जो यह अत्यन्त नीच कर्म किया है, यह निश्चय ही वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का मत है, तुममें यह नीच विचार सम्भव नहीं है। कौन ऐसा मनुष्य है, जो दूसरे के साथ युद्ध करने वाले असावधान योद्धा को ऐसा संकट प्रदान कर सकता है। जो श्रीकृष्ण का मित्र न हो, उससे ऐसा कर्म नहीं बन सकता। कुन्तीनन्दन ! वृष्णि और अन्धकवंश के लोग तो संस्कार भ्रष्ट हिंसा-प्रधान कर्म करने वाले और स्वभाव से ही निन्दित हैं। फिर उनको तुमने प्रमाण कैसे मान लिया ? रणभूमि में भूरिश्रवा के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उससे कहा।
अर्जुन बोले-प्रभो ! यह स्पष्ट है कि मनुष्य के बूढ़े होने के साथ-साथ उसकी बुद्धि भी बूढ़ी हो जाती है। तुमने इस समय जो कुछ कहा है, वह सब व्यर्थ है। तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों के नियन्ता भगवान श्रीकृष्ण को और मुझ पाण्डुपुत्र अर्जुन को भी जानते हो, तो भी हमारी निन्दा करते हो।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|