महाभारत वन पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-19

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एकोनविंश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व एकोनविंश अध्याय श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद
प्रद्युम्न द्वारा शाल्व की पराजय

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- कुन्तीनन्दन ! प्रद्युम्न के ऐसा कहने पर सूतपुत्र ने शीघ्र ही बलवानों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न से थोड़े शब्दों में मधुरतापूर्वक कहा-- ‘रुक्मिणीनन्दन ! संग्रामभूमि में घोड़ों की बागडोर सँभालते हुए मुझे तनिक भी भय नहीं होता। मैं वृष्णिवंशियों में युद्धधर्म को भी जानता हूँ। आपने जो कुछ कहा है, उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। ‘आयुष्मान !' मैंने तो सारथ्य में तत्पर रहने वाले लोगों के इस उपदेश का स्मरण किया था कि सभी दशाओं में रथी की रक्षा करनी चाहिये। उस समय आप भी अधिक पीड़ित थे। ‘वीर शाल्व के चलाये हुए बाणों से अधिक घायल होने के कारण आपको मूर्च्छा आ गयी थी, इसीलिये मैं आपको लेकर रणभूमि से हटा था।' ‘सात्वत वीरों मे प्रधान केशवनन्दन !' अब दैवेच्छा से आप सचेत हो गये हैं, अतः घोड़े हाँकने की कला में मुझे कैसी उत्तम शिक्षा मिली है, उसे देखिये। ‘मैं दारुक का पुत्र हूँ और उन्होंने ही मुझे सारथ्य कर्म की यथावत शिक्षा दी है। देखिये ! अब मैं निर्भय होकर राजा शाल्व की इस विख्यात सेना में प्रवेश करता हूँ।'

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-- वीरवर ! ऐसा कहकर उस सूतपुत्र ने घोड़ों की बागडोर हाथ में लेकर उन्हें युद्धभूमि की ओर हाँका और शीघ्रतापूर्वक वहाँ जा पहुँचा। उसने समान-असमान और वाम-दक्षिण आदि सब प्रकार की विचित्र मण्डलकार गति से रथ का संचालन किया। राजन ! वे श्रेष्ठ घोड़े चाबुक की मार खाकर, बागडोर हिलाने से तीव्र गति से दौड़ने लगे, मानो आकाश में उड़ रहे हों। महाराज ! दारुकपुत्र के हस्त लाघव को समझकर वे घोड़े प्रज्वलित अग्नि की भाँति दमकते हुए इस प्रकार जा रहे थे, मानो अपने पैरों से पृथ्वी को स्पर्श भी न कर रहे हों। भरतकुलभूषण ! दारुक के पुत्र ने अनायास ही शाल्व की उस सेना को अपसव्य ( दाहिने ) कर दिया। यह एक अद्भुत बात हुई। शोभराज शाल्व प्रद्युम्न के द्वारा अपनी सेना का अपसव्य किया जाना न सह सका। उसने सहसा तीन बाण चलाकर प्रद्युम्न के सारथी को घायल कर दिया। महाबाहो ! दारुककुमार ने वहाँ बाणों के वेगपूर्वक प्रहार की कोई चिन्ता न करते हुए शाल्व की सेना को अपसव्य ( दाहिने ) करते हुए रथ को आगे बढ़ाया। वीरवर ! तब शोभराज शाल्व ने पुनः मेरे पुत्र रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न पर अनेक प्रकार के बाण चलाये। शत्रु वीरों का संहार करने वाले रुक्मिणनन्दन प्रद्युम्न अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए शाल्व के बाणों को अपने पास आने से पहले ही तीक्ष्ण बाणों से मुस्कुराकर काट देते थे। प्रद्युम्न के द्वारा अपने बाणों को छिन्न-भिन्न होते देख सौभराज ने भयंकर आसुरी माया का सहारा लेकर बहुत-से बाण बरसाये। प्रद्युम्न ने शाल्व को अति शक्तिशाली दैत्यास्त्र का प्रयोग करता जानकर ब्रह्मस्त्र के द्वारा उसे बीच में ही काट डाला और अन्य बहुत-से बाण बरसाये। वे सभी बाण शत्रुओं का रक्त पीने वाले थे। उन बाणों ने शाल्व के अस्त्रों का नाश करके उसके मस्तक, छाती और मुख को बाँध डाला, जिससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। क्षुद्र स्वभाव वाले राजा शाल्व के बाण विद्ध होकर गिर जाने पर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ने अपने धनुष पर एक उत्तम बाण का संधान किया, जो शत्रु का नाश कर देने वाला था। वह बाण समस्त यादव समुदाय के द्वारा, सम्मानित विषैले सर्प के समान विषाक्त तथा प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशमान था। उस बाण को प्रत्यंचा पर रखा देख अन्तरिक्षलोक में हाहाकार मच गया। तब इन्द्र और कुबेर सहित सम्पूर्ण देवताओं ने देवर्षि नारद तथा मन के समान वेग वाले वासुदेव को भेजा। उन दोनों ने रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न के पास आकर देवताओं का यह संदेश सुनाया--‘वीरवर ! यह राजा शाल्व युद्ध में कदापि तुम्हारा वध्य नहीं है। ‘तुम अपने इस बाण को फिर से लौटा लो; क्योंकि यह शाल्व तुम्हारे द्वारा अवध्य है। तुम्हारे इस बाण का प्रयोग होने पर युद्ध में कोई भी पुरुष बिना मरे नहीं रह सकता। महाबाहो ! विधाता ने युद्ध में देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के हाथ से ही इसकी मृत्यु निश्चित की है।' 'उनका वह संकल्प मिथ्या नहीं होना चाहिये।' यह सुनकर प्रद्युम्न बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुष से उस उत्तम बाण को उतार लिया और पुनः तरकस में रख दिया। राजेन्द्र ! तदनन्तर शाल्व उठकर अत्यन्त दुःखित-चित्त हो प्रद्युम्न के बाणों से पीडि़त होने के कारण अपनी सेना के साथ तुरंत भाग गया। महाराज ! उस समय वृष्णिवंशियों से पीडि़त हो क्रूर स्वभाव वाला शाल्व द्वारका को छोड़कर अपने सौभ नामक विमान का आश्रय ले आकाश में जा पहुँचा।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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