त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में मनुष्य के शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का प्रतिपादन
पार्वतीजी ने पूछा- भगदेवता की आँख फोड़कर पूषा के दाँत तोड़ डालने वाले दक्षयज्ञविध्वंसी भगवान् त्रिलोचन! मेरे मन में यह एक महान संशय है। भगवान् ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में जिन चार वर्णों की सृष्टि की है, उनमें से वैश्य किस कर्म के परिणाम से शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है? अथवा क्षत्रिय किस कर्म से वैश्य होता है और ब्राह्मण किस कर्म से क्षत्रिय हो जाता है? देव! प्रतिलोम धर्म को कैसे निवृत्त किया जा सकता है? प्रभो! कौन-सा कर्म करने से ब्राह्मण शूद्र-योनि में जन्म लेता है अथवा किस कर्म से क्षत्रिय शूद्र हो जाता है? देव! पापरहित भूतनाथ! मेरे इस संशय का समाधान कीजिये। शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय- इन तीन वर्णों के लोग किस प्रकार स्वभावतः ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकते हैं?। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! ब्राह्मणत्व दुर्लभ है। शुभे! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये चारों वर्ण मेरे विचार से नैसर्गिक (प्राकृतिक या स्वभावसिद्ध) हैं, ऐसा मेरा विचार है। इतना अवश्य है कि यहाँ पापकर्म करने से द्विज अपने स्थान से-अपनी महत्ता से नीचे गिर जाता है। अतः द्विज को उत्तम वर्ण में जन्म पाकर अपनी मर्यादा की रक्षा करनी चाहिये। यदि क्षत्रिय अथवा वैश्य ब्राह्मण-धर्म का पालन करते हुए ब्राह्मणत्व का सहारा लेता है तो वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। जो ब्राह्मण ब्राह्मणत्व का त्याग करके क्षत्रिय धर्म का सेवन करता है, वह अपने धर्म से भ्रष्ट होकर क्षत्रिय योनि में जन्म लेता है। जो विप्र दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर लोभ और मोह के वशीभूत हो अपनी मन्दबुद्धिता के कारण वैश्य का कर्म करता है, वह वैश्ययोनि में जन्म लेता है। अथवा यदि वैश्य शूद्र के कर्म को अपनाता है, तो वह भी शूद्रत्व को प्राप्त होता है। शूद्रोचित कर्म करके अपने धर्म से भ्रष्ट हुआ ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त हो जाताहै। ब्राह्मण-जाति का पुरूष शूद्र-कर्म करने के कारण अपने वर्ण से भ्रष्ट होकर जाति से बहिष्कृत हो जाता है और मृत्यु के पश्चात् वह ब्रह्मलोक की प्राप्ति से वंचित होकर नरक में पड़ता है। इसके बाद वह शूद्र की योनि में जन्म ग्रहण करता है । महाभागे! धर्मचारिणि! क्षत्रिय अथवा वैश्य भी अपने- अपने कर्मों को छोड़कर यदि शूद्र का काम करने लगता है तो वह अपनी जाति से भ्रष्ट होकर वर्णसंकर हो जाता है और दूसरे जन्म में शूद्र की यानि में जन्म पाता है। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य कोई भी क्यों न हो, वह शूद्रभाव को प्राप्त होता है। जो पुरूष अपने वर्णधर्म का पालन करते हुए बोध प्राप्त करता है और ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, पवित्र तथा धर्मज्ञ होकर धर्म में ही लगा रहता है, वही धर्म के वास्तविक फल का उपभोग करता है। देवि! ब्रह्माजी ने यह एक बात और बतायी है- धर्म की इच्छा रखने वाले सत्पुरूषों को आजीवन अध्यात्म-तत्व का ही सेवन करना चाहिये। देवि! उग्रस्वभाव के मनुष्य का अन्न निन्दित माना गया है। किसी समुदाय का, श्राद्ध का, जननाशौच का, दुष्ट पुरूष का और शूद्र का अन्न भी निषिद्ध है- उसे कभी नहीं खाना चाहिये। देवताओं और महात्मा पुरूषों ने शूद्र के अन्न की सदा ही निन्दा की है। इस विषय में पितामह ब्रह्माजी के श्रीमुख का वचन प्रमाण है, ऐसा मेरा विश्वास है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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