त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद
जो ब्राह्मण पेट में शूद्र का अन्न लिये मर जाता है, वह अग्निहोत्री अथवा यज्ञ करने वाला ही क्यों न रहा हो, उसे शूद्र की योनि में जन्म लेना पड़ता है। उदर में शूद्रान्न का शेषभाग स्थित होने के कारण ब्राह्मण ब्रह्मलोक से वंचित हो शूद्रभाव को प्राप्त होता है, इसमें कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।उदर में जिसके अन्न का अवशेष लेकर जो ब्राह्मण मृत्यु को प्राप्त होता है, वह उसी की योनि में जाता है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह करता है, उसी की योनि में जन्म ग्रहण करता है। जो शुभ एवं दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर उसकी अवहेलना करता है और नहीं खाने योग्य अन्न खाता है, वह निश्चय ही ब्राह्मणत्व से गिर जाता है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, नीच, चोर, व्रतभंग करने वाला, अपवित्र, स्वाध्यायहीन, पापी, लोभ, कपटी, शठ, व्रत का पालन न करने वाला, शूद्रजाति की स्त्री का स्वामी, कुण्डाशी (पति के जीते-जी उत्पन्न किये हुए जारज पुत्र के घर में खाने वाला अथवा पाक पात्र में ही भोजन करने वाला), सोमरस बेचने वाला और नीच सेवी ब्राह्मण ब्राह्मण की योनि से भ्रष्ट हो जाता है। जो गुरू की शैय्या पर सोने वाला, गुरूद्रोही और गुरूनिन्दा में अनुरक्त है, वह ब्राह्मण वेदवेत्ता होने पर भी ब्रह्मयोनि से नीचे गिर जाता है। देवि! इन्हीं शुभ कर्मों और आचरणों से शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है और वैश्य क्षत्रियत्व को। शूद्र अपने सभी कर्मों को न्यायानुसार विधिपूर्वक सम्पन्न करे। अपने से ज्येष्ठ वर्ण की सेवा और परिचर्या में प्रयत्नपूर्वक लगा रहे। अपने कर्तव्यपालन से कभी ऊबे नहीं। सदा सन्मार्ग पर स्थित रहे। देवताओं और द्विजों का सत्कार करे। सबके आतिथ्य का व्रत लिये रहे। ऋतुकाल में ही स्त्री के साथ समागम करे। नियमपूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। स्वयं शुद्ध रहकर शुद्ध पुरूषों का ही अन्वेषण करे। अतिथि-सत्कार और कुटुम्बीजनों के भोजन से बचे हुए अन्न का ही आहार करे और मांस न खाय। इस नियम से रहने वाला शूद्र (मृत्यु के पश्चात् पुण्यकर्मों का फल भोगकर) वैश्ययोनि में जन्म लेता है। वैश्य सत्यवादी, अहंकारशून्य, निद्र्वन्द्व, शान्ति के साधनों का ज्ञाता, स्वध्यायपरायण और पवित्र होकर नित्य यज्ञों द्वारा यजन करे। जितेन्द्रिय होकर ब्राह्मणों का सत्कार करते हुए समस्त वर्णों की उन्नति चाहे। गृहस्थ के व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन दो ही समय भोजन करे। यज्ञशेष अन्न का ही आहार करे। आहार पर काबू रखे। सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग दे। अहंकारशून्य होकर विधिपूर्वक आहुति देते हुए अग्निहोत्र कर्म का सम्पादन करे। सबका आतिथ्य-सत्कार करके अवशिष्ट अन्न का स्वयं भोजन करे। त्रिविध अग्नियों की मन्त्रोच्चारणपूर्वक परिचर्या करे। ऐसा करने वाला वैश्य द्विज होता है। वह वैश्य पवित्र एवं महान क्षत्रियकुल में जन्म लेता है। क्षत्रियकुल में उत्पन्न् हुआ वह वैश्य जन्म से ही क्षत्रियोचित संस्कार से सम्पन्न् हो उपनयन के पश्चात् ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में तत्पर हो सर्वसम्मानित द्विज होता है। वह दान देता है, पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धिशाली यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करता है, वेदों का अध्ययन करके स्वर्ग की इच्छा रखकर सदा त्रिविध अग्नियों की शरण ले उनकी आराधना करता है, दुःखी एवं पीडि़त मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, प्रतिदिन प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करता है, स्वयं सत्यपरायण होकर सत्यपूर्ण व्यवहार करता है तथा दर्शन से ही सबके लिये सुखद होता है, वही श्रेष्ठ क्षत्रिय अथवा राजा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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