महाभारत वन पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-14

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पच्चीसवाँ अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व अध्याय 25 श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

महर्षि मार्कण्डेय का पाण्डवों को धर्म का आदेश देकर उत्तर की दिशा की ओर प्रस्थान

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय  ! सुख भोगने के योग्य राजकुमार पाण्‍डव इन्द्र के समान तेजस्वी थे। वे वनवास के संकट में पड़कर द्वैतवन में प्रवेश करके वहाँ सरस्वती-तटवर्ती सुखद शालवनों में विहार करने लगे। कुरुश्रेष्ठ महानुभाव राजा युधिष्ठिर ने उस वन में रहने वाले सम्पूर्ण यतियों, मुनियों और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को उत्तम फल-मूलों के द्वारा तृप्त किया। अत्यन्त तेजस्वी पुरोहित धौम्य पिता की भाँति उस महावन में रहने वाले राजकुमार पाण्डवों के यज्ञ-याग, पितृ-श्राद्ध तथा अन्य सत्कर्म करते-कराते रहते थे। राज्य से दूर होकर वन में निवास करने वाले श्रीमान पाण्डवों के उस आश्रम पर उद्दीस तेजस्वी पुरातन महर्षि मार्कण्डेयजी अतिथि के रूप मे आये। उनकी अंग-कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रही थी। देवताओं, ऋषियों तथा मनुष्यों द्वारा पूजित महामुनि मार्कण्डेयक को आया देख अनुपम धैर्य और पराक्रम से सम्पन्न महामनस्वी कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनकी यथावत पूजा की। अमित तेजस्वी तथा सर्वज्ञ महात्मा मार्कण्डेयजी द्रुपदकुमारी कृष्णा, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन ( और नकुल-सहदेव ) को देखकर मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके तपस्वियों के बीच में मुस्कराने लगे। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने उदासीन-से होकर पूछा--‘मुने ! ये सब तपस्वी तो मेरी अवस्था देखकर कुछ-संकुचित से हो रहे हैं, परंतु क्या कारण है कि आप इन सब महात्माओं के सामने मेरी ओर देखकर प्रसन्नतापूर्वक यों मुस्कुराते-से दिखायी देते हैं? मार्कण्डेयजी बोले-तात ! न तो मैं हर्षित होता हूँ और न ही मुस्कुराता हूँ। हर्षजनित अभिमान कभी मेरा स्पर्श नहीं कर सकता। आज तुम्हारी यह विपत्ति देखकर मुझे सत्य प्रतिज्ञ दशरथनन्‍दन श्रीरामचन्‍द्रजी का स्‍मरण हो गया। कुन्तीनन्दन ! प्राचीनकाल की बात है। राजा रामचन्द्रजी भी अपनी पिता की आज्ञा से ही केवल धनुष हाथ में लिये लक्ष्मण के साथ वन में निवास एवं भ्रमण करते थे। उस समय ऋष्यमूकपर्वत के शिखर पर मैंने ही उनका भी दर्शन किया था। दशरथनन्दन श्रीराम सर्वथा निष्पाप थे। इन्द्र उनके दूसरे स्वरूप थे। वे यमराज के नियन्ता और नमुचि जैसे दानवों के नाशक थे, तो भी उन महात्मा ने पिता की आज्ञा से अपना धर्म समझकर वन में निवास किया। जो इन्द्र के समान प्रभावशाली थे, जिनका अनुभव महान था तथा जो युद्ध में सर्वदा अजेय थे, उन्होंने भी सम्पूर्ण भोगों का परित्याग कर वन में निवास किया था। इसलिये अपने को बल का स्वामी समझकर अधर्म नहीं करना चाहिये। नाभाग और भागीरथ आदि राजाओं ने भी समुद्रपर्यन्त पृथ्वी को जीतकर सत्य के द्वारा उत्तम लोकों पर विजय पायी। इसलिये तात ! अपने को बल का स्वामी मानकर अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिये। नरश्रेष्ठ ! काशी और करुप्रदेश के राजा अलर्क को सत्य-प्रतिज्ञ संत बताया गया है। उन्होंने राज्य और धन त्यागकर धर्म का आश्रय लिया है। अतः अपने को अधिक शक्तिशाली समझकर अधर्म का आचरण नहीं करना चाहिये। मनुष्यों में श्रेष्ठ कुन्तीकुमार ! विधाता ने पुरातन वेदवाक्यों द्वारा जो अग्निहोत्र आदि कर्मों का विधान किया है, उसका समादर करने के कारण ही साधु सप्तर्षिगण देवलोक में प्रकाशित हो रहे हैं। अतः अपने को शक्तिशाली मानकर कभी धर्म का अनादर नहीं करना चाहिये। कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर ! पर्वतशिखर के समान ऊँचे और बड़े-बड़े दाँतों वाले इन महाबली गजराजों की ओर तो देखो। ये भी विधाता के आदेश का पालन करने में लगे हैं। इसलिये मैं शक्ति का स्वामी हूँ ऐसा समझकर कभी अधर्माचरण न करें। नरेन्द्र  ! देखो, ये समस्त प्राणी विधाता के विधान के अनुसार अपनी योनि के अनुरूप सदा कार्य करते रहते हैं, अतः अपने को बल का स्वामी समझकर अधर्म न करें। कुन्तीनन्दन ! तुम अपने सत्य, कर्म, यथायोग्य बर्ताव तथा लज्जा आदि सद्गुणों के कारण समस्त प्राणियों से ऊँचे उठे हुए हो। तुम्हारा यश और तेज अग्नि तथा सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है। महानुभाव नरेश ! तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार इस कष्ट साध्य वनवास की अवधि पूरी कर कौरवों के हाथ से अपनी तेजस्विनी राजलक्ष्मी को प्राप्त कर लोगे।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तपस्वी महात्माओं के बीच में अपने सुहृदों के साथ बैठे हुए धर्मराज युधिष्ठिर से पूर्वोक्त बातें कहकर महर्षि मार्कण्डेय धौम्य एवं समस्त पाण्डवों से विदा ले उत्तर दिशा की ओर चल दिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्वैतवनप्रवेशविषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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