त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: आश्वमेधिकपर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिकपर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
- सेना सहित अर्जुन द्वारा अश्व का अनुसरण
वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमेजय ! जब दीक्षा का समय आया, तब उन व्यास आदि महान ऋत्विजों ने राजा युधिष्ठिर को विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी। पशुबन्ध–कर्म करके यज्ञ की दीक्षा लिये हुए महातेजस्वी पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर ऋत्विजों के साथ बड़ी शोभा पाने लगे। अश्वमेध यज्ञ के लिये छोड़े हुए घोड़े का अर्जुन के द्वारा अनुगमन अमित तेजस्वी ब्रह्मवादी व्यासजी ने अश्वमेध–यज्ञ के लिये चुने गये अश्व को स्वयं ही शास्त्रीय विधि के अनुसार छोड़ा। राजन् ! यज्ञ में दीक्षित हुए धर्मराज राजा युधिष्ठर सोने की माला और कण्ठ में सोने की कण्ठी धारण किये प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। काला मृगचर्म, हाथ में दण्ड और रेशमी वस्त्र धारण किये धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अधिक कान्तिमान हो यज्ञ मण्डप में प्रजापति की भॉंति शोभा पा रहे थे। प्रजानाथ ! उनके समस्त ऋत्विज भी उन्हीं के समान वेशभूषा धारण किये सुशोभित होते थे । अर्जुनभी प्रज्जलित अग्नि के समान दीप्तिमान् हो रहे थे। भूपाल जनमेजय ! श्वेत घोड़े वाले अर्जुन ने धर्मराज की आज्ञा से उस यज्ञ सम्बन्धी अश्व का विधिपूर्वक अनुसरण किया। पृथिवीपाल ! राजन ! अर्जुन अपने हाथों में गोधा के चमड़े के बने दस्ताने पहन रखे थे । वे गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ अश्व के पीछे–पीछे जा रहे थे। जनमेजय ! प्रभो ! उस समय यात्रा करते हुए कुरुश्रेष्ठ अर्जुन को देखने के लिये बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सारा हस्तिनापुर वहां उमड़ आया था। यज्ञ के घोड़े और उसके पीछे जाने वाले अर्जुन को देखने की इच्छा से लोगों की इतनी भीड़ इकट्ठीहो गयी थी कि आपस में धक्का–मुक्की से सबके बदन में पसीने निकल आये। महाराज ! उस समय कुन्तीपुत्र धनंजय का दर्शन करने वाले लोगों के मुख से जो शब्द निकलता था, वह सम्पूर्ण दिशाओं और आकाश में गूँज रहा था। (लोग कहते थे-) ‘ये कुन्तीकुमार अर्जुनजा रहे हैं और दीप्तिमान अश्व जा रहा है, जिसके पीछे महाबाहु अर्जुन उत्तम धनुष धारण किये जा रहे है’। उदारबुद्धि अर्जुन ने परस्पर वार्तालाप करते हुए लोगों की बातें इस प्रकार सुनीं– भारत ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सुख से जाओ और पुन: कुशलपूर्वक लौट आओ’। नरेन्द्र ! दूसरे लोग ये बातें कहते थे–‘इस भीड़ में हम अर्जुन का तो नहीं देखते हैं; किन्तु उनका यह धनुष दिखायी देता है । यही वह भयंकर टंकार करने वाला विख्यात गाण्डीव धनुष है । अर्जुन की यात्रा सकुशल हो । उन्हें मार्ग में कोई कष्ट न हो । ये निर्भय मार्ग पर आगे बढ़ते रहें । ये निश्चय ही कुशलपूर्वक लौटेंगे और उस समय हम फिर इनका दर्शन करेंगे। भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार उदारबुद्धि अर्जुन स्त्रियों और पुरुषों की कही हुई मीठी–मीठी बातें बारम्बार सुनते थे। याज्ञवल्क्य मुनि के एक विद्वान शिष्य, जो यज्ञ कर्म में कुशल तथा वेदों में पारंगत थे, विध्न की शान्ति के लिये अर्जुन के साथ गये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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