महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 160 श्लोक 41-60
षष्ट्यधिकशततम (160) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
नृपश्रेष्ठ! समरागंण में अश्वत्थामा के द्वारा आच्छादित होने पर भी समस्त पान्चाल सेनाओं से घिरे हुए महारथी महाबाहु धृष्टद्युम्न कम्पित नहीं हुए। उन्होंने अपने बल पराक्रम का आश्रय लेकर अश्वत्थामा पर नाना प्रकार के बाणों का प्रहार किया। वे दोनों महाधनुर्धर वीर अमर्ष में भरकर एक दूसरे पर चारों ओर से बाणों की वर्षा करते और उन बाणसमूहों द्वारा परस्पर पीड़ा देते हुए प्राणों की बाजी लगाकर रणभूमि में डटे रहे। अश्वत्थामा और धृष्टद्युम्न के उस घोर एवं भयानक युद्ध को देखकर सिद्ध, चारण तथा वायुचारी गरूड़ आदि ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे दोनों अपने बाण-समूहों से आकाश और दिशाओं को भरते हुए उनके द्वारा महान् अन्धकार की सृष्टि करके अलक्ष्य होकर युद्ध करते रहे। उस रणक्षेत्र में धनुष को मण्डलाकार करके वे दोनों नृत्य-सा कर रहे थे। एक दूसरे के वध के लिये प्रयत्नशील होकर समस्त प्राणियों के लिये भयंकर बन गये थे। वे महाबाहु वीर समरागंण में समस्त श्रेष्ठ योद्धाओं द्वारा हजारों बार प्रशंसित होते हुए शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंग से विचित्र युद्ध कर रहे थ। वन में लड़ने वाले दो जंगली हाथियों के समान उन दोनों को युद्ध में जागरूक देखकर दोनों सेनाओं में तुमुल हर्षनाद छा गया। सब ओर सिंहनाद होने लगा। सैनिक शंखध्वनि करने लगे तथा सैकड़ों एवं सहस्त्रों प्रकार के रणवाद्य बजने लगे। कायरों का भय बढ़ाने वाले उस तुमुल संग्राम में दो घड़ी तक उन दोनों का समान रूप से युद्ध चलता रहा। महाराज! तदनन्तर द्रोणकुमार ने महामना धृष्टद्युम्न के ध्वज, धनुष, छत्र, दोनों पार्श्वरक्षक, सारथि तथा चारों घोड़ों को नष्ट करके उस युद्ध में बड़े वेग से धावा किया।। अनन्त आत्मबल से सम्पन्न अश्वत्थामा ने झुकी हुई गाँठ वाले सैकड़ों और सहस्त्रों बाणों द्वारा उन समस्त पान्चालों को दूर भगा दिया। भरतश्रेष्ठ! युद्धस्थल में इन्द्र के समान अश्वत्थामा के उस महान् कर्म को देखकर पाण्डव सेना व्यथित हो उठी।। महारथी द्रोणकुमार ने पहले सौ बाणों से सौ पान्चाल योद्धाओं का वध करके फिर तीन पैने बाणों द्वारा उने तीन महारथियों को भी मार गिराया और धृष्टद्युम्न तथा अर्जुन के देखते-देखते वहाँ जो बहुसंख्यक पान्चाल योद्धा खडे़ थे, उन सबको नष्ट कर दिया। समरभूमि में मारे जाते हुए पान्चाल और संजय सैनिक अश्वत्थामा को छोड़कर चल दिये, उनके रथ और ध्वज नष्ट-भ्रष्ट होकर बिखर गये थे। इस प्रकार रणभूमि में शत्रुओं को जीतकर महारथी द्रोण पुत्र वर्षाकाल के मेघ के समान जोर-जोर से गर्जना करने लगा। जैसे प्रलयकाल में अग्निदेव सम्पूर्ण भूतों को भस्म करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार अश्वत्थामा वहाँ बहुसंख्यक शूर-वीरों का वध करके सुशोभित हो रहा था। जैसे देवराज इन्द्र शत्रुओं का संहार करके सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रतापी द्रोण पुत्र अश्वत्थामा संग्राम में सहस्त्रों शत्रुसमूहों को परास्त करके कौरवों द्वारा पूजित एवं प्रशंसित होता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गतघटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर अश्वत्थामा का पराक्रमविषयक एक सौ साठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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