महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 162 श्लोक 44-55
द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
भरतनन्दन! तदनन्तर पराक्रमी युधिष्ठिर ने सम्भ्रम रहित हो धनुष खींचकर उनके उस अस्त्र को अपने दिव्यास्त्र द्वारा कुण्ठित कर दिया। इतना ही नहीं, उन पाण्डुकुमार ने विप्रवर द्रोणाचार्य के विशाल धनुष को भी काट दिया। फिर क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाले द्रोणाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लिया। परंतु कुरूप्रवर युधिष्ठिर ने अपने तीखे भल्लों से उसको भी काट दिया। तदनन्तर वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से कहा- ‘महाबाहु युधिष्ठिर! मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्ठ! तुम युद्ध में द्रोणाचार्य से अलग रहो। ‘क्योंकि द्रोणाचार्य युद्धस्थल में सदा तुम्हें कैद करने के प्रयत्न में रहते हैं, अतः तुम्हारे साथ इनका युद्ध होना मैं उचित नहीं मानता। ‘जो इनके विनाश के लिये उत्पन्न हुआ है, वही इन्हें मारेगा। तुम अपने गुरूदेव को छोड़कर जहाँ राजा दुर्योधन हैं, वहाँ जाओ। ‘क्योंकि राजा को राजा के ही साथ युद्ध करना चाहिये। जो राजा नहीं है, उसके साथ उसका युद्ध अभीष्ट नहीं है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम हाथी, घोड़े और रथों की सेना से घिरे रहकर वहीं जाओ। ‘तब तक मेरे साथ रहकर अर्जुन तथा रथियों में सिंह के समान पराक्रमी भीमसेन कौरवों के साथ युद्ध करते हैं’। भगवान् श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने दो घड़ी तक उस दारूण युद्ध के विषय में सोचा। फिर वे तुरंत वहाँ चले गये, जहाँ शत्रुओं का संहार करने वाले भीमसेन आपके योद्धाओं का वध करते हुए मुँह फैलाये यमराज के समान खडे़ थे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर अपने रथ की भारी घर्घराहट से भूतलको उसी प्रकार प्रतिध्वनित कर रहे थे, जैसे वर्षाकाल में गर्जना करता हुआ मेघ दसों दिशाओं को गुँजा देता है। उन्होंने शत्रुओं का संहार करने वाले भीमसेन के पार्श्वभाग की रक्षा का भार ले लिया। उधर द्रोणाचार्य भी रात्रि के समय पाण्डव तथा पान्चाल सैनिकों का संहार करने लगे।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|