नवतितम (90) अध्याय: आश्वमेधिकपर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिकपर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद
उन ब्राह्मणों के इस प्रकार पूछने पर नेवले ने हंसकर कहा – ‘विप्रवृन्द ! मैंने आप लोगों से मिथ्या अथवा घमंड में आकर कोई बात नहीं कही है।‘मैंने जो कहा है कि ‘द्विजवरों ! आन लोगों का यह यज्ञ उंछवृत्तियों वाले ब्राह्मणों के द्वारा किये हुए सेर भर सत्तू दान के बराबर भी नहीं है’ इसे आपने ठीक – ठीक सुना है।‘श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इसका कारण अवश्य आप लोगों को बताने योग्य है । अब मैं यथार्थ रूप से जो कुछ कहता हूं, उसे आप लोग शान्त चित्त होकर सुनें।‘कुरुक्षेत्र निवासी उंछवृत्तिधारी दानी ब्राह्मण के सम्बन्ध में मैंने जो कुछ देखा और अनुभव किया है, वह बड़ा की उत्तम एवं अदभुत् है’।‘ब्राह्मणों ! उस दान के प्रभाव से पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू सहित उन द्विज श्रेष्ठ ने जिस प्रकार स्वर्गलोक पर अधिकार पा लिया और वहां जिस तरह उन्होंने मेरा यह आधा शरीर सुवर्णमय कर दिया, वह प्रसंग बता रहा हूं’।नकुल बोला – ब्राह्मणों ! कुरुक्षेत्र निवासी द्विज के द्वारा दिये गये न्यायोपार्जित थोड़े – से अन्न के दान का जो उत्तम फल देखने में आया है, उसे मैं आप लोगों को बतलाता हूं।कुछ दिन पहले की बात है, धर्म क्षेत्र कुरूक्षेत्र में, जहां बहुत – से धर्मज्ञ महात्मा रहा करते हैं, कोई ब्राह्मण रहते थे । वे उंछवृत्ति से अपना जीवन – निर्वाह करते थे । कबूतर के समान अन्न का दाना चुनकर लाते और उसी से कुटुम्ब का पालन करते थे।वे अपनी स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहकर तपस्या में संलग्न थे । ब्राह्मण देवता शुद्ध आचार – विचार से रहने वाले धर्मात्मा और जितेन्द्रिय थे ।वे उत्तम व्रतधारी द्विज सदा छठे काल में अर्थात् तीन – तीन दिन पर ही स्त्री – पुत्र आदि के साथ भोजन किया करते थे । यदि किसी दिन उस समय भोजन न मिला तो दूसरा छठा काल आने पर ही वे द्विजश्रेष्ठ अन्न ग्रहण करते थे।ब्राह्मणों सुनो । एक समय वहां बड़ा भयंकर अकाल पड़ा । उन दिनों उन धर्मात्मा ब्राह्मण के पास अन्न का संग्रह तो था नहीं, खेतों का अन्न भी सूख गया था । अत: वे सर्वथा निर्धन हो गये थे।बारंबार छठा काल आता ; किन्तु उन्हें भोजन नहीं मिलता था । अत: वे सब – के – सब भूखे ही रह जाते थे । एक दिन ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष में दोपहरी के समय उस परिवार के सब लोग उंछ लाने के लिये चले।तपस्या में लगे वे ब्राह्मण देवता गर्मी और भूख दोनों से कष्ट पा रहे थे । भूख और परिश्रम से पीड़ित होने पर भी वे उंछ न पा सके । उन्हें अन्न का एक दाना भी नहीं मिला ; अत: परिवार के सभी लोगो के साथ उसी तरह भूख से पीड़ित रहकर ही उन्होंने वह समय काटा । वे श्रेष्ठ ब्राह्मण बड़े कष्ट से अपने प्राणों की रक्षा करते थे।तदनन्तर एक दिन पुन: छठा काल आने तक उन्होंने सेर भर जौ का उपार्जन किया । उन तपस्वी ब्राह्मणों ने उस जौ का सत्तू तैयार किया और जप तथा नैत्यिक नियम पूर्ण करके अग्नि में विधि पूर्वक आहुति देने के पश्चात् वे सब लोग एक – एक कुडव अर्थात् एक – एक पाव सत्तू बांटकर खाने के लिये उद्यत हुए।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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