महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 35-54
पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
वह तत्काल ही शूल, मुद्गर, शिलाखण्ड और वृक्ष हाथ में लिये हुए घोररूपधारी राक्षसों की विशाल सेना से घिर गया। भयानक कालदण्ड धारण किये, समस्, भूतों के प्राणहन्ता यमराज के समान उसे विशाल धनुष उठाये आते देख वहाँ उपस्थित हुए वे सभी नरेश व्यथित हो उठे। घटोत्कच के सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झरने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो गये। तदनन्तर चारों ओर से पत्थरों की अत्यन्त भयंकर एवं भारी वर्षा होने लगी। आधी रात के समय अधिक बलशाली हुए राक्षसों के समुदाय वह प्रस्तर-वर्षा कर रहे थे। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, शक्ति, तोमर, शूल, शतघ्नी और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों की अबिरल धाराएँ गिर रही थीं। नरेश्वर! उस अत्यन्त भयंकर और उग्र संग्राम को देखकर आपके पुत्र और योद्धा भयभीत होकर भाग चले।। अपने अस्त्रबल की प्रशंसा करने वाला एकमात्र अभिमानी कर्ण ही वहाँ खड़ा रहा। उसके मन में तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उसने अपने बाणों से घटोत्कच द्वारा निर्मित माया को नष्ट कर दिया। उस माया के नष्ट हो जाने पर घटोत्कच ने अमर्ष में भरकर भयंकर बाण छोड़े, जो सूतपुत्र के शरीर में समा गये। तदनन्तर वे रुधिर से रँगे हुए बाण उस महासमर में कर्ण को छेदकर कुपित हुए सर्पों के समान धरती में समा गये।। इससे शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाला प्रतापी वीर सूत पुत्र कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने घटोत्कच का उल्लंघन करके उसे दस बाणों से घायल कर दिया। सूतपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में विदीर्ण होकर अत्यन्त व्यथित हुए घटोत्कच ने दिव्य सहस्त्रार चक्र हाथ में लिया।। उस चक्र के किनारे-किनारे छुरे लगे हुए थे। मणि एवं रत्नों से विभूषित हुआ वह चक्र प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रतीत होता था। क्रोध में भरे हुए भीमसेन कुमार घटोत्कच ने अधिरथ पुत्र कर्ण को मार डालने की इच्छा से उस चक्र को चला दिया। परंतु अत्यन्त वेग से फेंका गया वह घूमता हुआ चक्र कर्ण के बाणों द्वारा आहत हो भाग्यहीन के संकल्प की भाँति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। चक्र को गिराया हुआ देखक्रोध में भरे हुए घटोत्कच ने अपने बाणों द्वारा कर्ण को उसी प्रकार आच्छादित करदिया, जैसे राहुसूर्य को ढक देता है। परंतु रुद्र, विष्णु और इन्द्र के समान पराक्रमी सूत पुत्र कर्ण को इससे तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने तुरंत ही पंखदार बाणों से घटोत्कच के रथ कोआच्छादित कर दिया।। तब कुपित हुए घटोत्कच ने सोने के क़े से विभूषित गदा घुमाकर चलायी, किन्तु कर्ण के बाणों से आहत होकर वह भी नीचे गर पड़ी। तदनन्तर अन्तरिक्ष में उछलकर वह विशालकाय राक्षस प्रलयकाल के मेघ की भाँति गर्जना करता हुआ आकाश से वृक्षों की वर्षा करने लगा। तब कर्ण भीमसेन के मायावी पुत्र को अपने बाणों द्वारा आकाश में उसी प्रकार बींधने लगा, जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा मेघों को विद्व कर देते हैं। उसके सारे घोड़ों को मारकर और रथ के सैकड़ों टुकट़े करके कर्ण ने वर्षा करने वाले मेघ की भाँति बाणों की वृष्टि आरम्भ कर दी। घटोत्कच के शरीर में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जो बाणों से विदीर्ण न हो गया हो। वह दो ही घड़ी में काँटों से युक्त साही के समान दिखायी देने लगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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