महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 176 श्लोक 1-17

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षट्सप्तत्यधिकशततम (176) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

अलायुध का युद्धस्थल में प्रवेश तथा उसके स्वरूप और रथ आदि का वर्णन

संजय कहते हैं- राजन्! इस प्रकार कर्ण और घटोत्कच का वह युद्ध चल ही रहा था कि पराक्रमी राक्षसराज अलायुध वहाँ उपस्थित हुआ। वह सहस्त्रों विकराल रूप वाले राक्षसों से घिकर अपनी विशाल सेना के साथ दुर्योधन के पास आया। उसके साथ अनेक रूप धारण करने वाले वीर राक्षस मौजूद थे। वह पहले के वैर का स्मरण करके वहाँ आया था। उसका कुटुम्बी बन्धु ब्राह्म्णभक्षी पराक्रमी बकासुर भीमसेन के द्वारा मारा गया था। उसके सखा हिडिम्ब और महातेजस्वी किर्मीर भी उन्हीं के हाथ से मारे गये थे। इस प्रकार दीर्घकाल से मन में रक्खे हुए पहले के वैर को उस समय वह बारंबार स्मरण कर रहा था। रात्रि में होने वाले इस संग्राम का समाचार पाकर रणभूमि में भीमसेन को मार डालने की इच्छा से वह मतवाले हाथी और क्रोध में भरे हुए सर्प की भाँति युद्ध की लालसा मन में रखकर दुर्योधन से इस प्रकार बोला-।‘महाराज! आपको तो मालूम ही होगा कि भीमसेन ने हमारे राक्षस भाई-बन्धु हिडिम्ब, बक और किर्मीर का किस प्रकार वध कर डाला है। ‘इतना ही नहीं, उन्होंने मेरा तथा दूसरे राक्षसों का अपमान करके पूर्वकाल में राक्षसकन्या हिडिम्बा के साथ भी बलात्कार किया था। इससे बढ़कर दूसरा अपराध क्या हो सकता है। ‘अतः राजन! मैं सैन्यसमूह, घोड़े, हाथी और रथों सहित भीमसेन को तथा मन्त्रियों सहित हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच को मार डालने के लिये स्वयं यहाँ आया हूँ। ‘श्रीकृष्ण जिनके अगुआ हैं, उन सभी कुन्ती पुत्रों को मारकर आज मैं समस्त अनुचरों के साथ उन्हें खा जाऊँगा। ‘अतः आप अपनी सारी सेना को रोक दीजिये। पाण्डवों के साथ हम लोग युद्ध करेंगे।’ उसकी यह बात सुनकर भाइयों से घिरे हुए राजा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अलायुध का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा-। ‘राक्षसराज! सैनिकों सहित तुम्हें आगे रखकर हम लोग भी शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे, क्योंकि जिनका मन वैर का अन्त करने में लगा हुआ है, वे मेरे सैनिक चुपचाप खड़े नहीं रहेंगे’। ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहकर राक्षसराज अलायुध तुरंत ही राक्षसों के साथ भीमसेन पुत्र घटोत्कच के सामने गया। राजेन्द्र! उसका शरीर देदीप्यमान हो रहा था। वह भी सूर्य के समान तेजस्वी वैसे ही रथ पर आरूढ़ होकर गया, जैसे रथ से घटोत्कच आया था। उसका विशाल रथ भी अनेक तोरणों से विचित्र शोभा पा रहा था। उसकी घर्घराहट भी अनुपम थी। उसके ऊपर भी रीछ का चाम मढ़ा हुआ था और उसकी लम्बाई-चैड़ाई भी चार सौ हाथ थी। उसके रथ में जुते हुए घोड़े भी हाथी के समान मोटे शरीर वाले, शीघ्रगामी और मदहों के समान उच्चस्वरसे हिन-हिनाने वाले थे। उनकी संख्या सौ थी। वे विशालकाय अश्व मांस और रक्त भोजन करते थे। उसके रथ का गम्भीर घोष भी महामेघ की गर्जना के समान जान पड़ता था। उसका धनुष भी विशाल, सुदृढ़ प्रत्यन्चा से युक्त तथा सुवर्णजटित होने के कारण प्रकाशमान था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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