कीर्तन

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:३५, १८ अगस्त २०११ का अवतरण (Text replace - "५" to "5")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
कीर्तन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 43
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

कीर्तन वैष्णव संप्रदाय में ईश्वरपासना की संगीत-नृत्य समन्वित एक विशेष प्रणाली। इसके प्रवर्त्तक देवर्षि नारद कहे जाते हैं। प्रह्लाद, अजामिल आदि ने इसके द्वारा ही परम पद प्राप्त किया था। मीराबाई, नरसी मेहता, तुहाराम आदि संत भी इसी परंपरा के अनुयायी हैं।

कीर्तन का विकास मुख्य रूप से बंगाल में हुआ। वहाँ कीर्तन का संकेत पाल नरेशों के समय से ही मिलता है, किंतु इसका चरम विकास महाप्रभु चैतन्य के समय में ही हुआ। कृष्ण नाम के आधार बनाकर मृदंग अथवा करताल के ताल पर भक्तिपूर्ण गीतों के गायन के साथ भावोन्मत्त होकर नाचना इसकी विशेषता है। बंगाल की इस कीर्तन प्रणाली के चार मुख्य रूप हैं :

गरनहाटी

इसका प्रचलन नरोत्तमदास कवि ने किया, जो स्वंय एक बड़े गायक थे। इनके कीर्तन में वृंदावन की भक्ति का रंग चढ़ा हुआ है। उन्होंने 15८4 ई. में अपने मूल स्थानों में एक बड़ा वैष्णव मेला बुलाया जिसमें चैतन्य महाप्रभु के भक्त श्रीनिवासाचार्य और श्यामानंद भी सम्मिलित हुए थे। यह मेला सात दिनों तक होता रहा। इस मेले में कीर्तन ने स्वाभाविक क्रम में अपना एक निजी रूप धारण कर लिया और उससे लगभग सारा बंगाल प्रभावित हुआ।

मनोहरशाही

पंद्रहवीं शती में कीर्तन की अनेक पद्धतियों के संयोग से गंगानारयण चक्रवर्ती ने इस रूप को विकसित किया और इसमें चंडीदास और विद्यापति के पदों का विशेष महत्व है। कीर्तन के अन्य दो उल्लेखनीय रूप है रेनेती और मंदरणी। बंगाल के इन कीर्तन स्वरूपों से ही असम के मणिपुरी नृत्य और मिथिला के कीर्तनिया नाटक का विकास हुआ है (द्र. मैथिली भाषा और साहित्य)।

महाराष्ट्र में कीर्तन की एक सर्वथा भिन्न और व्यवस्थित पद्धति है। वहाँ कीर्तनकार हरिदास कहे जाते हैं और वे विशेष प्रकार के वस्त्र पहनकर खड़े होकर करताल के ताल पर कीर्तन करते हैं। इस कीर्तन के दो अंग होते हैं-पूर्व रंग और उत्तर रंग। पूर्व रंग में हरिदास पहले मंगलाचरण स्वरूप गणपति अथवा अन्य देवताओं का स्तवन करता है। उसके बाद वह एक आध ध्रुपद अथवा भजन गाता है। तदनंतर संतों के अभंग अथवा पदों के आधार पर भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि पारमार्थिक विषयों का, निरूपण करता है। इसमें गीता, पंचदशी, ज्ञानेश्वरी, तुकाराम की रचनाओं आदि से उद्धरण देकर वह पूर्व रंग के रूप में रामायण, महाभारत अथवा पुराणों से आख्यान होता है। अंत में अभंग गायन से कीर्तन का समापन होता है। से कीर्तन विशेष पर्वों पर मुख्यत: मंदिरों में होते हैं।

  • कर्णाटक भक्ति संगीत का एक प्रकार। इसके दिव्यनाम, उत्सव संप्रदाय, मानस पूजा और संक्षेप रामायण नामक चार रूप हैं। पल्लवी, अनुपल्लवी और चरण उसके भाग हैं।
  • संस्कृत शिल्प साहित्य में प्रासाद और देवालय का पर्याय। इस रूप में इसका प्रयोग अग्निपुराण के देवालय निर्मित नामक अध्याय और आर्यशूर के जातक माला में भी हुआ चरण उसके भाग हैं। इलोरा के कैलास मंदिर के अभिलेख में भी कीर्तन शब्द का यही अभिप्राय हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ