महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 185 श्लोक 1-19

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पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: पञ्चाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंगपूर्ण उत्तर

संजय कहते हैं- राजन्! तदनन्तर अमर्ष में भरे हुए दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के पास जाकर उनमें हर्षोत्साह और उत्तेजना पैदा करते हुए इस प्रकार कहा।। 1 ।। दुर्योधन बोला- आचार्य! युद्ध में विशेषतः वे शत्रु, जो लक्ष्य बेधने मं कभी चूकते न हों, यदि थककर विश्राम ले रहे हों और मन में ग्लानि भरी होने से युद्धविषयक उत्साह खो बैठे हों, उनके प्रति कभी क्षमा नहीं दिखानी चाहिये।। इस समय जो हमने क्षमा की है- सोते समय शत्रुओं पर प्रहार नहीं किया है, वह केवल आपका प्रिय करने की इच्छा से ही हुआ है। इसका फल यह हुआ कि ये पाण्डव-सैनिक पूर्णतः विश्राम करके पुनःअत्यन्त प्रबल हो गये हैं।। 3।। हम लोग तेज और बल से सर्वथा हीन हो गये हैं और वे पाण्डव आपसे सुरक्षित होने के कारण बारंबार बढ़ते जा रहे हैं।। 4।। ब्रह्मास्त्र आदि जितने भी दिव्यास्त्र हैं, वे सब के सब विशेषरूप् से आपही में प्रतिष्ठित् हैं। युद्ध करते समय आपकी समानता न तो पाण्डव, न हम लोग और न संसार के दूसरे धनुर्धर ही कर सकते हैं, यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आप सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता हैं। अतः चाहें तो अपने दिव्यास्त्रों द्वारा देवता, असुर और गन्धर्वो सहित इन सम्पूर्ण लोकों का विनाश कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। फिर भी आप इन पाण्डवों को क्षमा करते जाते हैं। यद्यपि वे आपसे विशेष भयभीत रहते हैं, तो भी वे आपके शिष्य हैं, इस बात को सामने रखकर या मेरे दुर्भाग्य का विचार करके आप उनकी उपेक्षा करते हैं। 8।। संजय कहते हैं- राजन्! जब इस प्रकार आपके पुत्र ने द्रोणाचार्य को उत्साहित करते हुए उनका क्रोध बढ़ाया, तब वे कुपित होकर दुर्योधन से इस प्रकार बोले-।। 9।। ‘दुर्योधन! यद्यपि मैं बूढ़ा हो गया, तथापि युद्धस्थल में अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारी विजय के लिये चेष्टा करता हूँ, परंतु जान पड़ता है, अब तुम्हारी जीत की इच्छा से मुझे नीच कार्य भी करना पड़ेगा।। 10।। ‘ये सब लोग दिव्यास्त्रों को नहीं जानते और मैं जानता हूँ, इसलिये मुझे उन्हीं अस्त्रों द्वारा इन सबको मारना पडे़गा। कुरूनन्दन! तुम शुभ या अशुभ जो कुछ भी कराना उचित समझो, वह तुम्हारे कहने से करूँगा, उसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा।। 11½।। ‘राजन्! मैं सत्य की शपथ खाकर अपने धनुष को छूते हुए कहता हूँ कि ‘युद्ध में पराक्रम करके समस्त पान्चालों का वध किये बिना कवच नहीं उतारूँगा’।। 12½।। ‘परंतु तुम जो कुन्तीकुमार अर्जुन को युद्ध में थका हुआ समझते हो, वह तुम्हारी भूल है। महाबाहु करूराज! मैं उनके पराक्रम का सचाई के साथ वर्णन करता हूँ, सुनो।। ‘युद्ध में कुपित हुए सव्यसाची अर्जुन को न देवता, न गन्धर्व, न यक्ष और नराक्षस ही जीत सकते हैं।। 14½।। ‘उस महामनस्वी वीर ने खाण्डववन में वर्षा करते हुए भगवान् देवराज इन्द्र का सामना किया और अपने बाणों द्वारा उन्हें रोक दिया।। 15½।। ‘पुरूषश्रेष्ठ अर्जुन ने उस समय यक्ष, नाग, दैत्य तथा दूसरे भी जो बल का घमंड रखने वाले वीर थे, उन सबको मार डालाथा। यह बात तुम्हें मालूम ही है।। 16½।। ‘घोषयात्रा के समय जब चित्रसेन आदि गन्धर्व तुम्हें हरकर लिये जा रहे थे, उस समय दुदृढ़ धनुष धारण करने वाले अर्जुन ने ही उन सबको परास्त किया और तुम्हें बन्धन से छुड़ाया।। 17½।। ‘देवशत्रु निवातकवच नामक दानव, जिन्हें संग्राम में देवता भी नहीं मार सकते थे, उसी वीर अर्जुन से पराजित हुए हैं। 18½।। ‘जिन पुरूषसिंह अर्जुन ने हिरण्यपुरनिवासी सहस्त्रों दानवों पर विजय पायी है, वे मनुष्यों द्वारा कैसे जीते जा सकते हैं?।। 19½।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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