श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 44-52
दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23) (पूर्वाध)
सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान् की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभु ने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी । भगवान् स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करने वाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवों से प्रयोजन ही क्या हो सकता था ? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्य से माँगने का बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगने की भला क्या आवश्यकता थी ? स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओं को छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषों का परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसी से भोजन की याचना करें, यह लोगों को मोहित करने के लिये नहीं तो और क्या है ? देश, काल, पृथक-पृथक सामग्रियाँ, उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज्, अग्नि, देवता, यज्ञमान, यज्ञ और धर्म—सब भगवान् के ही स्वरुप हैं । वे ही योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान् विष्णु स्वयं श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ हैं कि उन्हें पहचान न सके । यह सब होने पर भी हम धन्याति धन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्ति से हमारी बुद्धि भी भगवान् श्रीकृष्ण के अविचल प्रेम से युक्त हो गयी है । प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही माया से हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मों के पचड़े में भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥ वे आदि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हमारे इस अपराध को क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी माया से मोहित हो रही है और हम उनके प्रभाव को न जानने वाले अज्ञानी हैं ।
परीक्षित्! उन ब्राम्हणों ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार किया था। अतः उन्हें अपने अपराध की स्मृति से बड़ा पश्चाताप हुआ और उनके ह्रदय में श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन की बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंस के डर के मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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