श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 27-33

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दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: श्लोक 27-33 का हिन्दी अनुवाद

यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है—एक प्रकृति। इसके दो फल हैं—सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं—सत्व, रज और तम; चार रस हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पाँच प्रकार हैं—श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं—पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ—रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएँ हैं—पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नवों द्वार खोडर हैं। प्राण, अपान, व्यान, उड़ान, सामान, नाग, कूर्म, कृकल,, देवदत्त और धनंजय—ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसाररूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं—जीव और ईश्वर । इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है—वे ही उतपत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रम्हादि देवताओं को अनेक देखते हैं। तत्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं । आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं। चराचर जगत् के कल्याण के लिए ही अनेकों रूप धारण करते हैं। आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्वमय होते हैं और संत पुरुषों को बहुत सुख देते हैं। साथ ही दुष्टों उनकी दुष्टता का दण्ड भी देते हैं। उसके लिए अमंगलमय भी होते हैं । कमल के सामान कोमल अनुग्रह भरे नेत्रोंवाले प्रभो! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रयस्वरुप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरुपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसारसागर को बछड़े के खुर के गढ़े के सामान अनायास ही पार कर जाते हैं। क्यों न हों, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसार-सागर को पार जो किया है | परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! आपके भक्तजन सारे जगत् के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसारसागर को पार का ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान् कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरुप ही हैं | कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहां से नीचे गिर जाते हैं | परन्तु भगवन्! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ राखी है, वे कभी उन ज्ञानभिमानियों की भाँति अपने साधनमार्ग से गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं |


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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