महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 190 श्लोक 19-40

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नवत्‍यधिकशततम (190) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: नवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद

फिर उनके मन में यह संदेह हुआ कि सम्‍भव है, यह बात झूठी हो, क्‍योंकि वे अपने पुत्र के बल-पराक्रम को जानते थे, अत: उसके मारे जाने की बात सुनकर भी धैर्य से विचलित न हुए। उनके मन में बारंबार यह विचार आया कि मेरा पुत्र तो शत्रुओं के लिय असहाय है, अत: क्षण भर में ही सचेत होकर उन्‍होनें अपने आपको संभाल लिया। तत्‍पश्‍चात अपनी मृत्‍युस्‍वरूप धृष्‍टधुम्न को मार डालने की इच्‍छा से वे उस पर टूट पड़े और कक्‍ड पत्र युक्‍त सहस्‍त्रों तीखे बाणों द्वारा उन्‍हें आच्‍छादित करने लगे। इस प्रकार संग्राम में विचरते हुए द्रोणाचार्य पर बीस हजार पांचाल-वीर नर श्रेष्ठ पांचाल वीर सब ओर से बाणों की वर्षा करने लगे। प्रजानाथ ! जैसे वर्षाकाल में मेघों की घटा से आच्‍छादित हुए सूर्य नहीं दिखायी देते है, उसी प्रकार उन बाणों के ढेर से दबे हुए महारथी द्रोण को हम लोग नहीं देख पाते थे। तब शत्रुओं को संताप देने वाले महारथी द्रोणाचार्य ने पांचाल के उन बाण-समूहों को नष्‍ट करके शूरवीर पांचाल के वध के लिये अमर्षयुक्‍त होकर ब्रहास्‍त्र प्रकट किया। तदन्‍तर सम्‍पूर्ण सैनिकों का विनाश करते हुए द्रोणाचार्य की बड़ी शोभा होने लगी । उन्‍होंने उस महासमर में पांचाल वीरों के मस्‍तक ओर सुवर्ण भूषित परिघ जैसी मोटी भुजाएं काट गिरायी। समरांगण में द्रोणाचार्य के द्वारा मारे जाने वाले वे पांचाल नरेश आंधी के उखाड़े हुए वृक्षों के समान धरती पर बिछ गये। भरतनन्‍दन ! धराशायी होते हुए हाथियों और अश्‍व समूहों के मांस तथा रक्‍त से कीच जम जाने के कारण वहां की भूमि पर चलना-फिरना असम्‍भव हो गया। उस समय पांचालों के बीस हजार रथियों का संहार करके द्रोणाचार्य युद्धस्‍थल में धूमरहित प्रज्‍ज्‍वलित अग्नि के समान खड़े थे। प्रतापी भरद्वाज नन्‍दन ने पुन: पूर्ववत कुपित होकर एक भल्‍ल के द्वारा वसुदान का मस्‍तक धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद मत्‍स्‍य देश के पचास योद्धाओं का, सृजंयवंश के छ: हजार सैनिकों का तथा दस हजार हाथियों का संहार करके उन्‍होंने पुन: दस हजार घुड़सवारों की सेना का सफाया कर दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य क्षत्रियों का विनाश करने के लिये उधत देख तुरंत ही अग्निदेव को आगे करके बहुत से महर्षि वहां आये। विश्‍वामित्र, जम‍दग्नि, भरद्वाज, गौतम, वसिष्‍ठ, कश्‍यप और अत्रि- येसब लोग उन्‍हें ब्रह्मलोक ले जाने की इच्‍छा से वहां पधारे थे। साथ ही सिकत, पृश्नि, गर्ग, सूर्य की किरणों का पान करने वाले वालखिल्‍य, भृगु, अडिंगरा तथा अन्‍य सूक्ष्‍मरूप धारी महर्षि भी वहां आये थे। उन सबने संग्राम में शोभा पाने वाले द्रोणाचार्य से इस प्रकार कहा- द्रोण ! तुम हथियार नीचे डालकर यहां खड़े हुए हम लोगों की ओर देखा । अब तक तुमने अधर्म से युद्ध किया है, अब तुम्‍हारी मृत्‍यु का समय आ गया है, इसलिये अ‍ब फिर यक क्रूरतापूर्ण कर्म न करो। तुम वेद ओर वेदांगो के विद्वान हो, विशेषत: सत्‍य ओर धर्म में तत्‍पर रहने वाले ब्राह्माण हो, तुम्‍हारे लिये यह क्रूर कर्म शोभा नही देता। अमोघ बाण वाले द्रोणाचार्य ! अस्‍त्र-शस्‍त्रों का परित्‍याग कर दो और अपने सनातन मार्ग पर स्थित हो जाओ । आज इस मनुष्‍य-लोक में तुम्‍हारे रहने का समय पूरा हो गया। इस भूतल पर जो लोग ब्रह्मास्‍त्र नहीं जानते थे, उन्‍हें भी तुमने ब्रह्मास्‍त्र से ही दग्‍ध किया है । ब्रह्मन ! तुमने जो ऐसा कर्म किया है, यह कदापि उत्‍तम नहीं है। विप्रवर द्रोण ! रणभूमि में अपना अस्‍त्र-शस्‍त्र रख दो, इस कार्य में विलम्‍ब न करो । ब्रहान् ! अब फिर ऐसा अत्‍यन्‍त पापपूर्ण कर्म न करना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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