श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 1-14
दशम स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः (25) (पूर्वाध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परन्तु उनके क्रोध करने से होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं श्रीकृष्ण थे । इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करने वाले मेघों के सांवर्तक नामक गण को व्रज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और कहा— ‘ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला । जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रम्हविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव से—कर्ममय यज्ञों से इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं । कृष्ण बकवादी,, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है । एक तो ये यों ही धन के नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुम लोग जाकर इनके इस धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो । मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरूद्गणों के साथ आता हूँ’ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रज पर चढ़ आये और मूसलाधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीड़ित करने लगे । चारों और बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे । इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकार खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा—इसका पता चलना कठिन हो गया । इस प्रकार मूसलाधार वर्षा तथा झंझावत के झपाटे से जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठण्ड के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में आये । मूसलाधार वर्षा से सताये जाने के कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चों की निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा था और वे काँपते-काँपते भगवान् की चरणशरण में पहुँचे और बोले—‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम बड़े भाग्यवान् हो। अब तो कृष्ण! केवल तुम्हारे ही भाग्य से हमारी रक्षा होगी। प्रभो! इस सारे गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो। भक्तवत्सल! इन्द्र के क्रोध से अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो’ ॥ १३ ॥ भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्र की है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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