श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 14-25
दशम स्कन्ध: षड्विंशोऽध्यायः (26) (पूर्वाध)
भला, कहाँ तो यह सात वर्ष का नन्हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े गिरिराज को सात दिनों तक उठाये रखना! व्रजराज! इसी से तो तुम्हारे पुत्र के सम्बन्ध में हमें बड़ी शंका हो रही है ।
नन्दबाबा ने कहा—गोपों! तुम लोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालक के विषय में तुम्हारी शंका दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्ग ने इस बालक को देखकर इसके विषय में ऐसा ही कहा था । ‘तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण-करता है। विभिन्न युगों में इसने श्वेत, रक्त और पीत—ये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है । नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वासुदेव के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जानने वाले लोग ‘इसका नाम श्रीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते हैं । तुम्हारे पुत्र के गुण और कर्मों के अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामों को जानता हूँ, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते । यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओं को यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायता से तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार लोगे ।
‘व्रजराज! पूर्वकाल में एक बार पृथ्वी में कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओं ने चारों और लूट-खसोट मचा राखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्र ने सज्जन पुरुषों की रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगों ने लुटेरों पर विजय प्राप्त की ।
नन्दबाबा! जो तुम्हारे इस साँवले शिशु से प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान् हैं। जैसे विष्णु भगवान् के करकमलों की छत्रछाया में रहने वाले देवताओं को असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करने वालों को बाहरी या भीतरी—किसी भी प्रकार के शत्रु नहीं जीत सकते । नन्दजी! चाहे जिस दृष्टि से देखें—गुण से, ऐश्वर्य और सौन्दर्य से, कीर्ति और प्रभाव से तुम्हारा बालक स्वयं भगवान् नारायण के ही समान है, अतः इस बालक के अलौकिक कार्यों को देखकर आश्चर्य न करना चाहिये’ । गोपों! मुझे स्वयं गर्गाचार्यजी यह आदेश देकर अपने घर चले गये। तब से मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करने वाले इस बालक को भगवान् नारायण का ही अंश मानता हूँ । जब व्रजवासियों ने नन्दबाबा के मुख से गर्गजी की यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा। क्योंकि अब वे अमिततेजस्वी श्रीकृष्ण के प्रभाव को पूर्णरूप से देख और सुन चुके थे। आनन्द में भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्ण भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
जिस समय अपना यज्ञ भंग हो जाने के कारण इन्द्र क्रोध के मारे आग-बबूला हो गये थे और मूसलाधार वर्षा करने लगे थे, उस समय वज्रपात, ओलों की बौछार और प्रचण्ड आँधी से स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीड़ित हो गये थे। अपनी शरण में रहने वाले व्रजवासियों की यह दशा देखकर भगवान् का ह्रदय करुणा से भर आया। परन्तु फिर एक नयी लीला करने के विचार से वे तुरंत ही मुसकाने लगे। जैसे कोई नन्हा-सा नर्बल बालक खेल-खेल में ही बरसाती छत्ते का पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़कर धारण कर लिया और सारे व्रज की रक्षा की। इन्द्र का मद चूर करने वाले वे ही भगवान् गोविन्द हम पर प्रसन्न हों ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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