प्रथम (1) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)
महाभारत: आश्व मेधिकपर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- भाईयों सहित युधिष्ठिर तथा कुन्ती आदि देवियों के द्वारा धृतराष्ट्र और गान्धारी की सेवा
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।
जनमेजय ने पूछा - ब्राह्मन् ! मेरे प्रपितामह महात्मा पाण्डव अपने राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लेने के बाद महाराज धृतराष्ट्र के प्रति कैसा बर्ताव करते थे ? राजा धृतराष्ट्र अपने मन्त्री और पुत्रो के मारे जाने से निराश्रय हो गये थे । उनका ऐश्वर्य नष्ट हो गया था । ऐसी अवस्था में वे और गान्धारी देवी किस प्रकार जीवन व्यतीत करते थे। मेरे पूर्वपितामह महात्मा पाण्डव कितने समय तक अपने राज्य पर प्रतिष्ठित रहे ? ये सब बातें मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें। वैशम्पायनजी ने कहा - राजन् ! जिनके शत्रु मारे गये थे, वे महात्मा पाण्डव राज्य पाने के अनन्तर राजा धृतराष्ट्र को ही आगे रखकर पृथ्वी का पालन करने लगे। कुरूश्रेष्ठ ! विदुर, संजय तथ वैश्यापुत्र मेधावी युयुत्सु - ये लोग सदा धृतराष्ट्र की सेवा में उपस्थित रहते थे । पाण्डव लोग सभी कार्यों में राजा धृतराष्ट्र की सलाह पूछा करते थे और उनकी आज्ञा लेकर प्रत्येक कार्य करते थे । इस तरह उन्होनें पंद्रह वर्षों तक राज्य का शासन किया। वीर पाण्डव प्रतिदिन राजा धृतराष्ट्र के पास जा उनके चरणों में प्रणाम करके कुछ काल तक उनकी सेवा में बैठे रहते थे और सदा धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा के अधीन रहते थे। धृतराष्ट्र भी स्नेहवश पाण्डवों का मस्तक सूँघकर जब उन्हें जाने की आज्ञा देते, तब वे आकर सब कार्य किया करते थे । कुन्ती देवी भी सदा गान्धारी की सेवा में लगी रहती थीं। द्रौपदी, सुभद्रा और पाण्डवों की अन्य स्त्रियाँ भी कुन्ती और गान्धारी दोनो सासुओं की समान भाव से विधिवत् सेवा किया करती थीं। महाराज ! राजा युधिष्ठिर बहुमूल्य शय्या, वस्त्र, आभूषण तथा राजा के उपभोग में आने योग्य सब प्रकार के उत्तम पदार्थ एवं अनेकानेक भक्ष्य, भोज्य पदार्थ धृतराष्ट्र को अर्पण किया करते थे । इसी प्रकार कुन्ती देवी भी अपनी सास की भाँति गान्धारी की परिचर्या किया करती थीं। कुरूनन्दन ! जिनके पुत्र मारे गये थे, उन बूढे़ राजा धृतराष्ट्र की विदुर, संजय और युयुत्सु - ये तीनों सदा सेवा करते रहते थे। द्रोणाचार्य के प्रिय साले महान् ब्राह्मण महा धनुर्धर कृपाचार्य तो उन दिनों सदा धृतराष्ट्र के ही पास रहते थे। पुरातन ऋषि भगवान् व्यास भी प्रतिदिन उनके पास आकर बैठते और उन्हें देवर्षि, पितर तथा राक्षसों की कथाएँ सुनाया करते थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर जी उनके समस्त धार्मिक और व्यावहारिक कार्य करते-कराते थे। विदुर जी की अच्छी नीति के कारण उनके बहुतेरे प्रिय कार्य थोडे़ खर्च में ही सामन्तों (सीमावर्ती राजाओं) से सिद्ध हो जाया करते थे। वे कैदियों को कैद से छुटकारा दे देते और वध के योग्य मनुष्यों को भी प्राणदान देकर छोड़ देते थे; किंतु धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर इसके लिये उनसे कभी कुछ कहते नहीं थे। महातेजस्वी कुरूराज युधिष्ठिर विहार और यात्रा के अवसरों पर राजा धृतराष्ट्र को समस्त मनोवांछित वस्तुओं की सुविधा देते थे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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