महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-20

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द्वितिय (2) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिकापर्व: द्वितिय अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डवों का धृतराष्ट्र और गान्धारी के अनुकूल बर्ताव

वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! इस प्रकार पाण्डवों से भलीभाँति सम्मानित हो अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र पूर्ववत् ऋषियों के साथ गोष्ठी सुख का अनुभव करते हुए वहाँ सानन्द निवास करने लगे। कुरूकुल के स्वामी महाराज धृतराष्ट्र ब्राह्मणों को देने योग्य अग्रहार (माफी जमीन) देते थे और कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर सभी कार्यों में उन्हें सहयोग देते थे। राजा युधिष्ठिर बड़े दयालु थे । वे सदा प्रसन्न रहकर अपने भाईयों और मन्त्रियों से कहा करते थे कि ‘ये राजा धृतराष्ट्र मेरे और आप लोगों के माननीय हैं । जो इनकी आज्ञा के अधीन रहता है, वही मेरा सुहृद् है । विपरित आचरण करने वाला मेरा शत्रु है । वह मेरे दण्ड का भागी होगा। ‘पिता आदि की क्षयाह तिथियों पर तथा पुत्रों और समस्त सुहृदों के श्राद्धकर्म में राजा धृतराष्ट्र जितना धन खर्च करना चाहें, वह सब इन्हें मिलना चाहिये’। तदनन्तर महामना कुरूकुलनन्दन राजा धृतराष्ट्र उक्त अवसरों पर सुयोग्य ब्राह्मणों को बारम्बार प्रचुर धन का दान करते थे । धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, सव्यसाची अर्जुन और नकुल-सहदेव भी उनका प्रिय करने की इच्छा से सब कार्यों में उनका साथ देते थे। उन्हें सदा इस बात की चिन्ता बनी रहती थी कि पुत्र पौत्रों के वध से पीड़ित हुए बूढे़ राजा धृतराष्ट्र हमारी ओर से शोक पाकर कहीं अपने प्राण न त्याग दें। अपने पुत्रों की जीवितावस्था में कुरूवीर धृतराष्ट्र को जितने सुख और भोग प्राप्त थे, वे अब भी उन्हें मिलते रहें - इसके लिये पाण्डवों ने पूरी व्यवस्था की थी। इस प्रकार के शील और बर्ताव से युक्त होकर वे पाँचों भाई पाण्डव एक साथ धृतराष्ट्र की आज्ञा के अधीन रहते थे। धृतराष्ट्र भी उन सबको परम विनीत, अपनी आज्ञा के अनुसार चलने वाले और शिष्य भाव से सेवा में संलग्न जानकर पिता की भाँति उनसे स्नेह रखते थे। गान्धारी देवी ने भ्ी अपने पुत्रों के निमित्त नाना प्रकार के श्राद्धकर्म का अनुष्ठान करके ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार धन दान किया औैर ऐसा करके वे पुत्रों के ऋण से मुक्त हो गयीं। इस प्रकार धर्मात्माओं में श्रेष्ठ बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाईयों के साथ रहकर सदा राजा धृतराष्ट्र का आदर सत्कार करते रहते थे। कुरूकुल शिरोमणी महातेजस्वी बूढ़े राजा धृतराष्ट्र ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर का कोई ऐसा बर्ताव नहीं देखा, जो उनके मन को अप्रिय लगने वाला हो। महात्मा पाण्डव सदा अच्छा बर्ताव करते थे; इसलिये अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र उनके ऊपर बहुत प्रसन्न रहते थे। सुबलपुत्री गान्धारी भी अपने पुत्रों का शोक छोड़कर पाण्डवों पर सदा अपने सगे पुत्रों के समान प्रेम करती थीं। पराक्रमी कुरूकुलतिलक राजा युधिष्ठिर महाराज धृतराष्ट्र का सदा प्रिय ही करते थे, अप्रिय नहीं करते थे। महाराज ! राजा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी देवी ये दोनों जो कोई छोटा या बड़ा कार्य करने के लिये कहते, पाण्डव धुरन्धर शत्रुसूदन राजा युधिष्ठिर उनके उस आदेश को सादर शिरोधार्य करके वह सारा कार्य पूर्ण करते थे। उनके उस बर्ताव से राजा धृतराष्ट्र सदा प्रसन्न रहते और अपने उस मन्दबुद्धि दुर्योधन को याद करके पछताया करते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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