महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 21-30

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:०२, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==प्रथम (1) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)== <div s...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

प्रथम (1) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिकापर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 21-30 का हिन्दी अनुवाद

प्रतिदिन सबेरे उठकर स्नान संध्या एवं गायत्री जप कर लेने के पश्चात् पवित्र हुए राजा धृतराष्ट्र सदा पाण्डवों को समर विजयी होने का आशीर्वाद देते थे। ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर अग्नि में हवन करने के पश्चात् राजा धृतराष्ट्र सदा यह शुभकामना करते थे कि पाण्डवों की आयु बढ़े। राजा धृतराष्ट्र को सदा पाण्डवों के बर्ताव से जितनी प्रसन्नता होती थी, उतनी उत्कृष्ट प्रीति उन्हें अपने पुत्रों से भी कभी प्राप्त नहीं हुई थी। युधिष्ठिर ब्राह्मणों और क्षत्रियों के साथ जैसा सदबर्ताव करते थे, वैसा ही वैश्यों और शूद्रों के साथ भी करते थे। इसलिये वे उन दिनों सबके प्रिय हो गये थे। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने उनके साथ जो कुछ बुराई की थी, उसे अपने हृदय में स्थान न देकर वे युधिष्ठिर राजा घृतराष्ट्र की सेवा में संलग्न रहते थे। जो कोई मनुष्य राजा धृतराष्ट्र का थोड़ा सा भी अप्रिय कर देता था, वह बुद्धिमान् कुन्तीकुमार युधिष्ठिर के द्वेष का पात्र बन जाता था। युधिष्ठिर के भय से कोई भी मनुष्य कभी राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधन के कुकृत्यों की चर्चा नहीं करता था। शत्रुसूदन जनमेजय ! राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और विदुर जी अजातशत्रु युधिष्ठिर के धैर्य और शुद्ध व्यवहार से विशेष प्रसन्न थे, किंतु भीमसेन के बर्ताव से उन्हें संतोष नहीं था। यद्यपि भीमसेन भी दृढ़ निश्चय के साथ युधिष्ठिर के ही पथ का अनुसरण करते थे, तथापि धृतराष्ट्र को देखकर उनके मन में सदा ही दुर्भावना जाग उठती थी। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र के अनुकूल बर्ताव करते देख शत्रुसूदन कुरूनन्दन भीमसेन स्वयं भी ऊपर से उनका अनुसरण ही करते थे, तथापि उनका हृदय धृतराष्ट्र से विमुख ही रहता था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकापर्व के अन्तर्गत आश्रमवासपर्व में दूसरा अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख