श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 71 श्लोक 1-13
दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः(71) (पूर्वाध)
श्रीकृष्ण भगवान् का इन्द्रप्रस्थ पधारना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण के वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासाद् और भगवान् श्रीकृष्ण के मत पर विचार किया और फिर कहने लगे ।
उद्धवजी ने कहा—भगवन्! देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय-यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उसका यह कथन ठिक्क ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्य कर्तव्य है । प्रभो! केवल जरासन्ध को जीत लेने से ही हमारा उद्देश्य सफ़ल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओं को मुक्ति और उसके कारण आपकी सुयश की भी प्राप्ति हो जायगी । राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगों के भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योकि दस हजार हाथियों का बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं । उसे आमने-सामने के युद्ध में एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राहाणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बात की याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता । इसलिये भीमसेन ब्राह्मण के वेष में जायँ और उससे युद्ध की भिक्षा माँगे। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थिति में भीमसेन और जरासन्ध का द्वन्दयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे । प्रभो! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित और कालस्वरूप हैं। विश्व की सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्ति से होता है। ब्रम्हा और शंकर तो उसमें निमित्त मात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्ध का वध तो होगा आपकी शक्ति से, भीमसेन केवल उसमें निमित्त मात्र बनेंगे) । जब इस प्रकार आप जरासन्ध का वध कर डालेंगे, तब कैद में पड़े हुए राजाओं की रानियाँ अपने महलों में आपकी इस विशुद्ध लीला का गान करेंगी कि आपने उनके शत्रु का नाश कर दिया और उनके प्राणपतियों को छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शंखचूड से छुड़ाने की लीला का, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजी के उद्धार की लीला का तथा हम लोग आपके माता-पिता को कंस के कारागार से छुड़ाने की लीला का गान करते हैं । इसलिये प्रभो! जरासन्ध का वश स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य-परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिंदानन्द श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय-यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं (इसलिये आप वहीँ पधारिये) ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया । अब अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिये आज्ञा दी । इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने यदुराज उग्रसेन और बलरामजी से आज्ञा लेकर बाल-बच्चों के साथ रानियों और उनके सब सामानों को आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथ पर स्वयं सवार हुए ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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