श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 1-8
दशम स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः (31) (पूर्वाध)
गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं—‘प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वन में भटककर तुम्हें ढूँढ रही हैं । हमारे प्रेमपूर्ण ह्रदय के स्वामी! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशय में सुन्दर-से-सुन्दर सरसिज की कर्णिका के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है ? पुरुषशिरोमणे! यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाले अघासुर, इन्द्र की वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवं भिन्न-भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार-बार हमलोगों की रक्षा की है ॥३॥ तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे! ब्रम्हाजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिये तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो । अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे! जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्र-छाया में लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो ।
व्रजवासियों के दुःख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम्हारी मन्द-मन्द मुस्कान की एक उज्जवल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं। हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ ।
तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य-माधुर्य की खान हैं और स्वयं लक्ष्मी की उनकी सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया। हमारा हृदय तुम्हारी विरहव्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला को शान्त कर दो ।
कमलनयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े-बड़े विद्वान उसमें रम जाते हैं। उस पर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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