महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 198 श्लोक 57-68
अष्टनवत्यधिकशततम (198) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
सब धर्मों के ज्ञाता शिनिप्रवर ! इस प्रकार मित्र धर्म का विचार करके आप धृष्टधुम्र की ओर से अपने क्रोध को रोकें और शान्त हो जायें, आप धृष्टधुम्र के और धृष्टधुम्र आपके अपराध को क्षमा कर लें । हम लोग केवल क्षमा-प्रार्थना करने वाले हैं, शांति से बढ़कर श्रेष्ठ वस्तु और क्या हो सकती है? माननीय नरेश ! जब सहदेव सात्यकि को इस प्रकार शांत कर रहे थे, उस समय पांचालराज के पुत्र ने हंसकर इस प्रकार कहा-। भीमसेन ! शिनिके इस पौत्र को अपने युद्ध-कौशल पर बड़ा घमंड है । तुम इसे छोड़ दो, छोड़ दो । जैसे हवा पर्वत से आकर टकराती है, उसी प्रकार यह मुझसे आकर भिड़े तो सही । कुन्ती नन्दन ! मैं अभी तीखे बाणों से इसका क्रोध उतार देता हूं । साथ ही इसका युद्ध का हौसला और जीवन भी समाप्त किये देता हूं। परन्तु मैं इस समय क्या कर सकता हूं । पाण्डवों का यह दूसरा ही महान कार्य उपस्थित हो गया । ये कौरव बढ़े चले आ रहे हैं। अथवा केवल अर्जुन यद्ध के मैदान में इन समस्त कौरवों को रोकेंगे, तब तक मैं भी अपने बाणों द्वारा इस सात्यकि का मस्तक काट गिराउंगा । यह मुझे भी रण भूमि में कटी हुई बांहवाला भूरिश्रवा समझता है । तुम छोड़ तो इसे । या तो मैं इसे मार डालूंगा या यह मुझे। अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले वे दोनों वीर दो सांडों के समान गरज रहे थे । माननीय नरेश ! उस समय भगवान श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर ने शीघ्रतापूर्वक महान प्रयत्न करके उन दोनों वीरों को रोका।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|