श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 33 श्लोक 27-37
दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः (33) (पूर्वाध)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने अंश बलरामजी के सहित पूर्णरूप में अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतार का उद्देश्य ही यह था कि धर्म की स्थापना हो और अधर्म का नाश । ब्रम्हन्! वे धर्म मर्यादा के बनाने वाले, उपदेश करने वाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का स्पर्श कैसे किया । मैं मानता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्राय से यह निन्दनीय कर्म किया ? परम ब्रम्हचारी मुनीश्वर! आप कृपा करके मेरा यह सन्देह मिलाइये ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ) कभी-कभी धर्म का उल्लंघन और साहस का काम करते देखे जाते हैं। परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्नि सब कुछ खा जाता है, परन्तु उन पदार्थों के दोष से लिप्त नहीं होता । जिन लोगों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, शरीर से करना तो दूर रहा। यदि मुर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान् शंकर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा । इसलिये इस प्रकार के जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को ही सत्य मानना और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरण का अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि उनका जो आचरण उनके उपदेश के अनुकूल हो, उसी को जीवन में उतारे । परीक्षित्! वे सामर्थ्यवान् पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभकर्म करने में उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करने में अनर्थ (नुकसान) नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे होते हैं ॥ ३३ ॥ जब उन्हीं के सम्बन्ध में ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवों के एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान् हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभ का सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है । जिनके चरणकमलों के रज का सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभाव से योगीजन अपने सारे कर्मबन्धन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्त्व का विचार करके तत्त्वरूप हो जाते हैं तथा समस्त कर्म-बंधनों से मुक्त होकर स्वच्छंद विचरते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला, उनमें कर्मबन्धन की कल्पना कैसे हो सकती है । गोपियों के, उनके पतियों के और सम्पूर्ण शरीरधारियों के अन्तःकारणों में जो आत्मारूप से विराजमान हैं, जो सबके साक्षी और परमपति हैं, वही तो अपना दिव्य-चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं ।
भगवान् जीवों पर कृपा करने के लिये ही अपने को मनुष्य रूप में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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