श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 11-23

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दशम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः श्लोक 11-23 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने-धमकाने लगीं। उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी। अपराध तो किया ही था, इसलिये रुलाई रोकने पर भी न रूकती थी। हाथों से आँखें मल रहे थे, इसलिए मुँहपर काजल की स्याही फ़ैल गयी थीं, पिटने के भय से आँखें ऊपर की ओर उठ गयी थीं, उनसे व्याकुलता सूचित होती थी । जब यशोदाजी ने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है, तब उनके ह्रदय में वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। उन्होंने छड़ी फ़ेंक दी। इसके बाद सोंचा कि इसको एक बार रस्सी से बाँध देना चाहिए (नहीं तो यह कहीं भाग जाएगा)। परीक्षित्! सच पूछो तो यशोदा मैया को अपने बालक के ऐश्वर्य का पता नहीं था । जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत् के पहले भी थे, बाद में भी रहेंगे, इस जगत् के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपों में भी हैं; और तो क्या, जगत् के रूप में भी स्वयं वही हैं; यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियों से परे और अव्यक्त हैं—उन्हीं भगवान् को मनुष्य का-सा रूप धारण करने के कारण पुत्र समझकर यशोदारानी रस्सी से उखल में ठीक वैसे ही बाँध देंतीं हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक हो ।जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़के को रस्सी से बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी । जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी, इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लाती और जोड़तीं गयीं, त्यों-त्यों जुड़ने पर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं । यशोदारानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान् श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलता पर देखने वाली गोपियाँ मुसकराने लगीं और वे स्वयं भी मुसकराती हुई आशचर्यचकित हो गयीं । भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयीं हैं और वे बहुत थक भी गयीं हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बन्ध गये । परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण परम स्वन्तन्त्र हैं। ब्रम्हा, इन्द्र आदि के साथ यह सम्पूर्ण जगत् उनके वश में है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ । ग्वालिनी यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपाप्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रम्हा पुत्र होने पर भी, शंकर आत्मा होने पर भी और वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होने पर भी न पा सके, न पा सके ।। २० ।। यह गोपिकानंदन भगवान् अनन्यप्रेमी भक्तों के लिए जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरुप भूत ज्ञानीयों के लिए भी नहीं हैं । इसके बाद नन्दरानी यशोदाजी तो घर के काम-धंधों में उलझ गयीं और ऊखल में बंधे हुए भगवान् श्यामसुन्दर ने उन दोनों अर्जुनवृक्षों को मुक्ति देने की सोंची, जो पहले यक्षराज कुबेर के पुत्र थे । इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव। इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य की पूर्णता थी। इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदजी ने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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