श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 74 श्लोक 1-16
दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितमोऽध्यायः(74) (पूर्वाध)
भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्ध का वध और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ।
धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा—सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! त्रिलोकी के स्वामी ब्रम्हा, शंकर आदि और इन्द्रादि लोकपाल—सब आपकी आज्ञा पाने के लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धा से उसको शिरोधार्य करते हैं ।अनन्त! हम लोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं हैं अपने को भूपति और नरपति। ऐसी स्थिति में हैं तो हम दण्ड के पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान् के लिये यह मनुष्य-लीला का अभिनयमात्र है । जैसे उदय अथवा अस्त के कारण सूर्य के तेज में घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकार के कर्मों से न तो आपका उल्लास होता है और न हो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित स्वयं पर परब्रम्ह परमात्मा हैं ।किसी से पराजित न होने वाले माधव! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस प्रकार की विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओं की होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्त में ऐसे पागलपन के विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँ से ? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है) ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राम्हणों को ऋत्विज्, आचार्य आदि के रूप में वरण किया ।
उनके नाम ये हैं—श्रीकृष्णाद्वैपायन व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरी, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण ।
इसके अतिरिक्त धर्मराज ने द्रोणाचार्, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदि को भी बुलवाया ।राजन्! राजसूय-यज्ञ का दर्शन करने के लिये देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र—सब-के-सब वहाँ आये ।
इसके बाद ऋत्विज् ब्राम्हणों ने सोने के हलों से यज्ञभूमि को जुतवाकर राजा युद्धिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी । प्राचीन काल में जैसे वरुणदेव के यज्ञ में सब-के-सब यज्ञपात्र सोने के बने हुए थे, वैसे ही युद्धिष्ठिर के यज्ञ में भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में निमन्त्रण पाकर ब्रम्हाजी, शंकरजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणों के साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ—ये सभी उपस्थित हुए ।
सबने बिना किसी प्रकार के कौतूहल के यह बात मान ली कि राजसूय-यज्ञ करना युधिष्ठिर के योग्य ही है। क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त के लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओं के समान तेजस्वी याजकों ने धर्मराज युद्धिष्ठिर से विधिपूर्वक राजसूय-यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण से करवाया था ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-