महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 15 श्लोक 23-44

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पञ्चदश (15) अध्याय: कर्णपर्व

महाभारत: कर्णपर्व: पञ्चदश अध्याय: श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद

महाराज ! फिर तो जैसे प्रजा के संहार काल में ग्रहों का धोर युद्ध होने लगता है, उसी प्रकार उन दोनों में भयंकर अस्त्र युद्ध छिड़ गया। भारत ! उन दोनों के छोड़े हुए वे बाण सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए आपकी सेना के चारों ओर गिरने लगे। नरेश्वर ! उस समय बाण-समूहों से वयाप्त हुआ आकाश बड़ा भयंकर प्रतीत होने लगा; ठीक उसी तरह, जैसे प्रजा के संहारकाल में होने वाला युद्ध उल्कापात से व्याप्त होने के कारण अत्यन्त भयानक दिखाई देता है। भरतनन्दन ! वहाँ बाणों के परस्पर टकराने से चिंगारियों तथा प्रज्वलित लपटों के साथ आग प्रकट हो गयी, जो दोनों सेनाओं को दग्ध किये देती थी। प्रभो ! महाराज ! उस समय वहाँ उड़कर आते हुए सिद्ध परस्पर इस प्रकार कहने लगे- ‘यह युद्ध तो सभी युद्धों से बढ़कर हो रहा है, अन्य सब युद्ध तो इसकी सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं थे। ‘ऐसा युद्ध फिर कभी नहीं होगा। ये ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही अद्भुत ज्ञान से सम्पन्न हैं। ‘भयंकर पराक्रम दिखाने वाले ये दोनों योद्धा अद्भुत शौर्यशाली हैं। अहो ! भीमसेन का बल भयंकर है। इनका अस्त्रज्ञान अद्भुत है ! । ‘अहो ! इनके वीर्य की सारता विलक्षण है। इन दोनों का युद्धसौन्दर्य आश्चर्यजनक है। ये दोनों समरांगण में कालान्तक एवं यम के समान जान पड़ते हैं। ‘ये भयंकर रूपधारी दोनों पुरुषसिंह रणभूमि में दो रुद्र, दो सूर्य अथवा दो रुद्र, दो सूर्य अथवा दो यमराज के समान प्रकट हुए हैं ‘। इस प्रकार सिद्धों की बातें वहाँ बारंबार सुनाई देती थीं। आकाश में एकत्र हुए देवताओं का सिंहनाद भी प्रकट हो रहा था। रणभूमि में उन दोनों के अद्भुत एवं अचिन्त्य कर्मको देखकर सिद्धों और चारणों के समूहों को बड़ा विस्मय हो रहा था। उस समय देवता, सिद्ध और महर्षिगण उन दोनों की प्रशंसा करते हुए कहने लगे- ‘महाबाहु द्रोणकुमार ! तुम्हें साधुवाद ! भीमसेन ! तुम्हारे लिये भी साधुवाद ? ‘ राजन् ! परस्पर अपराध करने वाले वे दोनों शूरवीर समरांगण में क्रोध से आँखें फाड़-फाड़ कर एक दूसरे की ओर देख रहे । क्रोध से उन दोनों की आँखें लाल हो गयी थीं। क्रोध से उनके ओठ फड़क रहे थे और क्रोध से ही वे ओठ चबाते एवं दाँत पीसते थे। वे दानों महारथी धनुष रूपी विद्युत् से प्रकाशित होने वाले मेघ के समान हो बाणरूपी जल धारण करते थे और समरांगण में बाण-वर्षा करके एक दूसरे को ढके देते थे। वे उस समासमर में परस्पर के ध्वज, सारथि और घोड़ों को बींधकर ऐक दूसरे को क्षत-विक्षत कर रहे थे। महाराज ! तदनन्तर उस महासमर में कुपित हो उन दोनों ने एक दूसरे के वध की इच्छा से तुरंत दो बाणलेकर चलाये। राजन्द्र ! वे दोनों बाण सेना के मुहाने पर चमक उठे। उन दोनों का वेग वज्र के समान था। उन दुर्जय बाणों ने दोनों के पास पहुँचकर उन्हें घायल कर दिया। परस्पर के वेग से छूटे हुए उन बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो वे महापराक्रमी वीर अपने-अपने रथ की बैठक में तत्काल गिर पड़े। राजन् ! तत्पश्चात् सारथि द्रोणपुत्र को अचेत जानकर सारी सेना के देखते-देखते उसे रणक्षेत्र से बाहर हटा ले गया। महाराज ! इसी प्रकार बारंबार विह्वल होते हुए शत्रुतापन पाण्डुपुत्र भीमसेन को भी रथ द्वारा उनका सारथि विशोक युद्धस्थल से अन्यत्र हटा ले गया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वत्थामा और भीमसेन का युद्ध विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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