महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-13

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पन्‍चदश (15) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिकापर्व: पन्‍चदश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
गान्धारी सहित धृतराष्ट्र का वन को प्रस्थान

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर ग्यारहवें दिन प्रातःकाल गान्धारी सहित बुद्धिमान अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने वनवास की तैयारी करके वीर पाण्डवों को बुलाया और उनका यथावत् अभिनन्दन किया। उस दिन कार्तिक की पूर्णिमा थी। उसमें उन्होंने वेद के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों से यात्रा कालोचित इष्टि करवाकर वल्कल ओर मृगचर्म धारण किये और अग्निहोत्र को आगे करके पुत्र वधुओं से घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र राजभवन से बाहर निकले। विचिनचीर्यनन्दन राजा धृतराष्ट्र के इस प्रकार प्रस्थान करने पर कौरवों और पाण्डवों की स्त्रियाँ तथा कौरव राजवंश क अन्यान्य महिलाएँ सहसा रो पड़ीं । उनके रोने का महान् शब्द उस समय से ओर गूँज उठा था। घर से निकल कर राजा धृतराष्ट्र ने लावा और भाँति भाँति के फूलों से उस राजभवन की पूजा की और समस्त सेवक वर्ग का धन से सत्कार करके उन सबको छोड़कर वे महाराज वहाँ से चल दिये। तात ! उस समय राजा युधिष्ठिर हाथ जोडे़ हुए काँपने लगे । आँसुओं से उनका गला भर आया । वे जोर जोर से महान् आर्तनाद करते हुए फूट-फूट कर रोने लगे। और ‘महात्मन् ! आप मुझे छोड़कर कहाँ चले जा रहे हैं ।’ ऐसा कहते हुए पृथ्वी पर गिर पडे़। उस समय भरतवंश के अग्रगण्य वीर अर्जुन दुस्सह दुःख से संतप्त हो बारंबार लंबी साँस खींचते हुए वहाँ युधिष्ठिर से बोले -‘भैया ! आप ऐसे अधीर न हो जाइये।’ यों कहकर वे उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर दीन की भाँति शिथिल होकर बैठ गये। तत्पश्चात् युधिष्ठिर सहित भीमसेन, अर्जुन, वीर माद्रीकुमार, विदुर, संजय, वैश्यापुत्र युयुत्सु, कृपाचार्य, धौम्य तथा और भी बहुत से ब्राह्मण आँसू बहाते हुए गदगद कण्ठ होकर उनके पीछे-पीछे चले । आगे-आगे कुन्ती अपने कंधे पर रखे हुए गान्धारी के हाथ को पकड़े चल रही थी। उनके पीछे आँखों पर पट्टी बाँधे गान्धारी थीं और राजा धृतराष्ट्र गान्धारी के कंधे पर हाथ रखे निश्चिन्ततापूर्वक चले जा रहे थे। द्रुपद कुमारी कृष्णा, सुभद्रा, गोद में नन्हा सा बालक लिये उत्तरा, कौरव्यनाम की पुत्री उलूपी, बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा तथा अन्य जो कोई भी अन्तःपुर की स्त्रियाँ थीं; वे सब अपनी बहुओं सहित राजा धृतराष्ट्र के साथ चल पड़ीं। राजन् ! उस समय वे सब स्त्रियाँ दुःख से व्याकुल हो कुररियों के समान उच्च स्वर से विलाप कर रहीं थी। उनके रोने का कोलाहल सब ओर व्याप्त हो गया था। उसे सुनकर पुरवासी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों की स्त्रियाँ भी चारों ओर से घर छोड़कर बाहर निकल आयीं। राजन् ! जैसे पूर्वकाल में द्यूतक्रीड़ा के समय कौरव सभा से निकलकर वनवास के लिये पाण्डवों के प्रस्थान करने पर हस्तिनापुर के नागरिकों का समुदाय दुःख में डूब गया था, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के जाते समय भी समस्त पुरवासी शोक से संतप्त हो उठे थे। रनिवास की जिन रमणियों ने कभी बाहर आकर सूर्य और चन्द्रमा को भी नहीं देखा था, वे ही कौरवराज धृतराष्ट्र के महावन के लिये प्रस्थान करते समय शोक से व्याकुल होकर खुली सड़क पर आ गयी थीं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकापर्व के अन्तर्गत आश्रमवासपर्व में धृतराष्ट्र का नगर से निकलना विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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