श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 70 श्लोक 1-11

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दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः(70) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठ में श्रीकृष्ण ने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोह की आशंका से व्याकुल हो जातीं और उन मुरगों को कोसने लगतीं ।उस समय पारिजात की सुगन्ध से सुवासित भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भौंरें तालस्वर से अपने संगीत की तान छेड़ देते। पक्षियों की नींद उचट जाती और वे वंदीजनों की भाँति भगवान् श्रीकृष्ण को जगाने के लिये मधुर स्वर से कलरव करने लगते । रुक्मिणीजी अपने प्रियतम के भुजपाश में बँधी रहने पर भी आलिंगन छूट जाने की आशंका से अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्राम्हमुहूर्त को भी असह्य समझने लगती थीं ।

भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राम्हमुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरुप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था । परीक्षित्! भगवान् का वह आत्मस्वरुप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकार की उपाधि या उपाधि के कारण होने वाला अन्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रिय के द्वारा और नेत्र नेत्र-इन्द्रिय चंद्रमा-सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरुप में ही सदा-सर्वदा और काल की सीमा के परे भी एकरस स्थित रहने के कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसी से प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश की कारणभूता ब्रम्हशक्ति, विष्णुशक्ति और रूद्रशक्तियों के द्वारा केवल इस बात का अनुमान हो सकता है कि वह स्वरुप एकरस सत्तारूप और आनन्दस्वरुप है। उसी को समझाने के लिये ‘ब्रम्ह’ नाम से कहा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरुप का प्रतिदिन ध्यान करते । इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्श जो हैं । इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरुप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिर कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राम्हणों की विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ों वाली सीधी-शान्त गौओं का दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियों की माला पहना दी जाती। सींग में सोना और खुरों में चाँदी मढ़ दी जाती। वे ब्राम्हणों को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिल के साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते । तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राम्हण, देवता, कुल के बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियों को प्रणाम करके मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करते ।

परीक्षित्! यद्यपि भगवान् के शरीर का सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोक का अलंकार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पों के हार और चन्दनादि दिव्य अंगराग से अपने को आभूषित करते ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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