श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 70 श्लोक 42-47
दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः(70) (उत्तरार्ध)
भगवन्! उस श्रेष्ठ यज्ञमें आपका दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े देवता और यशस्वी नरपतिगण एकत्र होंगे । प्रभो! आप स्वयंविज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करने मात्र से अन्यत्ज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। त्रिभुवन-मंगल! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओं मेँ छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्ग में मन्दाकिनी, पाताल में भोगवती और मर्त्सलोक में गंगाके नाम से प्रवाहित होकर सारे विश्व को पवित्र कर रही है ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सभा में जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बात के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्ध पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अतः उन्हें नारदजी की बात पसंद न आयी। तब ब्रम्हा आदि के शासक भगवान् श्रीकृष्ण ने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणी में उद्धवजी से कहा—
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘उद्धव! तुम मेरे हितैषी सुहृद हो। शुभ सम्मति देने वाले और कार्य के तत्त्व को भलीभाँति समझने वाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषय में हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बात पर हमारी श्रद्धा है। इसीलिये हम तुम्हारी सलाह के अनुसार ही काम करेंगे’ । जब उद्धवजी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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