श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 72 श्लोक 25-37
दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितमोऽध्यायः(72) (उत्तरार्ध)
इसमें सन्देह नहीं कि विष्णु भगवान् ने देवराज इन्द्र की राज्यलक्ष्मी बलि से छीनकर उन्हें लौटाने के लिये ही ब्राम्हणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलि को यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्य ने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वी दान कर ही दिया ।
मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीर से जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राम्हण के लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है’ ।
परीक्षित्! सचमुच जरासन्ध की बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राम्हण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन से कहा—‘ब्राम्हणों! आप लोग मनचाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आप लोगों को अपना सिर भी दे सकता हूँ’ ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘राजेन्द्र! हम लोग अन्न के इच्छुक ब्राम्हण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्ध के लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्दयुद्ध की भिक्षा दीजिये । देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन हैं और मैं इन दोनों का ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ’ । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढ़कर बोला—‘अरे मूर्खों! यदि तुम्हें युद्ध की ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ । परन्तु कृष्ण! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्ध में तुम घबरा जाते हो। यहाँ तक कि मेरे डर से तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्र की शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लडूँगा । यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्था में मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोड़ का वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लडूँगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोड़ के हैं’ । जरासन्ध ने यह कहकर भीमसेन को एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगर से बाहर निकल आया ।अब दोनों रणोंन्मत्त वीर अखाड़े में आकर एक-दूसरे से भिड़ गये और अपनी वज्र के समान कठोर गदाओं से एक-दूसरे पर चोट करने लगे । वे दायें-बायें तरह-तरह के पैंतरे बदलते हुए ऐसी शोभायमान हो रहे थे—मानो दो श्रेष्ठ नट रंगमंच पर युद्ध का अभिनय कर रहे हों । परीक्षित्! जब एक की गदा दूसरे की गदा से टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करने वाले दो हाथियों के दाँत आपस में भिड़कर चटचटा रहे हों या बड़े जोर से बिजली तड़क रही हो । जब दो हाथी क्रोध में भरकर लड़ने लगते हैं और आक की डालियाँ तोड़-तोड़कर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, उस समय एक-दूसरे की चोट से वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेग से गदा चला-चलाकर एक-दूसरे के कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियों पर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अंगों से टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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